Mira Bai Information In Hindi: परिचय, भक्ति, मृत्यु एवं इतिहास

आज हम जानेंगे Mira Bai Information In Hindi जिन्हें भगवान श्री कृष्ण की अनन्य उपासक माना जाता है. जिनका जीवन जुड़ा हुआ था प्रेम, त्याग और भक्ति से.

1. मीरा बाई का परिचय | Mira Bai Information In Hindi

Mira Bai Information In Hindi

मीरा बाई एक प्रमुख कवियित्री और सन्त थीं, जो भक्ति आंदोलन में जानी जाती थी। उनका जीवन और कविताएं भारतीय आध्यात्मिकता में महत्वपूर्ण हैं। उनका जन्म कुड़की गांव में राजपूत परिवार में हुआ था लगभग 1498 के आसपास।

उनके दादा, राव दूदा ने उन्हें पाला था, जो मेड़ता के शासक थे। मीरा की धार्मिकता उनके बचपन से ही प्रगट थी। कहा जाता है कि एक साधु ने उन्हें भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति दी थी, जिसे उन्होंने अपने पति की तरह स्वीकार कर लिया और उसके बाद से वे पूरी तरह से श्रीकृष्ण को समर्पित हो गईं।

उनके विवाह मेवाड़ के शासक राणा सांगा के बेटे भोजराज से हुआ। भोजराज एक बहादुर योद्धा थे, लेकिन मीरा की धार्मिक भावनाओं को वह कभी नहीं समझ सके। शादी के बाद भी मीरा सांसारिक जीवन में नहीं बंधीं।

वे दिन-रात श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन रहती थीं, मंदिरों में कीर्तन करतीं और संतों से ज्ञान लेती थीं। उनका यह व्यवहार उस समय की सामाजिक मान्यताओं के खिलाफ था, जिससे परिवार में खटास आने लगी।

खासकर विधवा होने के बाद, मीरा की भक्ति पर बहुत आलोचना हुई। कई बार उन्हें परेशान किया गया, लेकिन कहा जाता है कि श्रीकृष्ण की कृपा से वे हर बार बच गईं। यह उनकी भक्ति और कृष्ण के प्रति अटूट प्यार का सबूत था। मीरा की भक्ति सिर्फ एक औपचारिकता नहीं थी, वास्तव में यह उनके लिए एक गहरा अनुभव था।

उन्होंने अपनी आत्मा को श्रीकृष्ण के चरणों में समर्पित किया।

उनका जीना भक्ति और प्रेम में ही था।

वे समाज के डर से बेपरवाह थीं और अपना रास्ता खुद चुना।

उन्होंने एक विद्रोही की तरह जीया, लेकिन उनका विद्रोह क्रोध नहीं, बल्कि प्रेम से था।

यह बात विशेष है, क्योंकि वे उस समय में जी रही थीं जब औरतों की आजादी काफी सीमित थी। मीरा की रचनाएं ब्रज भाषा, राजस्थानी और गुजराती में हैं।

  • उनकी कविताओं में कृष्ण के प्रति प्रेम, दूरी के दु:ख और प्रभु के दर्शन की इच्छा का भावनात्मक चित्रण मिलता है।
  • उनके पदों से उनकी भावनाएं स्पष्ट होती हैं और दिल को छू लेती हैं।
  • जैसे “पायो जी मैंने राम रतन धन पायो”, उनके पद आज भी भक्तों में लोकप्रिय हैं।
  • उनकी रचनाओं में कृष्ण को प्रेमी, पति और मित्र के रूप में दिखाया गया है।
  • उन्होंने भक्ति को अपने व्यक्तिगत अनुभव के रूप में प्रस्तुत किया है।
  • मीरा की कविताएँ निर्गुण और सगुण भक्ति के सही संतुलन को प्रस्तुत करती हैं। मीराबाई को संत रविदास के प्रभाव का पता चलता है। उन्हें माना जाता है कि उन्होंने संत रविदास को अपना गुरु माना और उनसे आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त किया। यह रिश्ता उस समय के भक्ति आंदोलन में सामाजिक समानता का प्रतीक था, जहाँ जाति और लिंग के भेद को हटा दिया गया था।
  • मीराबाई का जीवन इस आंदोलन की एक उत्कृष्ट उदाहरण बन गया, जो दिखाता है कि ईश्वर की प्राप्ति के लिए न केवल जाति की जरुरत होती है और न ही पुरुष होना आवश्यक है। मीरा का जीवन का अंतिम हिस्सा द्वारका और वृंदावन में बीता। उन्होंने महलों को छोड़कर साधुओं और भक्तों के साथ समय बिताने का निर्णय लिया।
  • वृंदावन, जो कृष्ण की भक्ति की महत्वपूर्ण जगह मानी जाती है, वहाँ उन्होंने अपने भगवान के साथ एकता का अनुभव किया। कहा जाता है कि वे द्वारका के रणछोड़ जी मंदिर में खुद को श्रीकृष्ण में लीन कर लिया और उनका शरीर वहाँ विलीन हो गया।
  • यह कहानी उनके भक्ति के चरम को दर्शाती है। आज भी मीरा बाई भारतीय लोगों के दिलों में जिंदा हैं — उनकी कविताएं गांव-गांव गाई जाती हैं, उनके पद मंदिरों में गूंजते हैं, और उनका नाम महिलाओं के आत्मसम्मान और भक्ति की प्रतीक के रूप में लिया जाता है।

मीरा एक कवियित्री, संत, विद्रोही और एक ऐसी आत्मा थीं जो ईश्वर से प्रेम करने की हिम्मत रखती थीं, फिर चाहे समाज कुछ क्यों न कहे।

मीरा का जीवन यह साबित करता है कि जब प्रेम और भक्ति सच्चे होते हैं, तो वे सब बंधनों को तोड़ सकते हैं और आत्मा को परमात्मा से मिला सकते हैं। जिन्हें योगदान मिला है, वे भक्ति साहित्य को समृद्ध करते हैं और यह दिखाते हैं कि

जब महिलाएं अपने सत्य को खोजती हैं, तो उनकी ताकत कितनी बढ़ जाती है। मीरा बाई की कहानी केवल भक्त की नहीं है, बल्कि एक गहरी सोच और आध्यात्मिकता की अभिव्यक्ति है जो हमेशा प्रेरणा देती रहेगी।

2. मीरा बाई की श्री कृष्ण के प्रति भक्ति

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मीरा बाई की श्रीकृष्ण भक्ति भारतीय भक्ति साहित्य का मुल्यवान अंश है।

हम उनकी बातें सुनते-सुनते ऐसा महसूस करते हैं कि हम प्यार और भक्ति के समुद्र में डूब रहे हैं।

मीरा का समर्पण और श्रद्धा इतनी गहरी थी कि भक्ति उनके लिए केवल एक धार्मिक कर्तव्य नहीं, बल्कि जीवन का असली उद्देश्य बन गई।

उन्होंने श्रीकृष्ण को सिर्फ भगवान नहीं, बल्कि अपना प्रियतम और दोस्त भी माना।

बचपन से ही उन्होंने कृष्ण को अपने जीवनसाथी मान लिया और यह निश्छल विश्वास अपने हाल के दिनों तक बनाए रखा।

उनकी भक्ति एक साधारण पूजा नहीं थी, बल्कि आत्मा के परमात्मा में विलीन होने की अभिलाषा का उदाहरण था। मीरा की श्रीकृष्ण के प्रति भक्ति की खासियत यह थी कि उन्होंने अपने जीवन के सभी बंधनों से मुक्त होकर केवल श्रीकृष्ण को अपना सब कुछ माना।

उन्होंने मंदिरों में साधारण भक्तों के तरह गाना और नृत्य प्रारंभ किया जबकि वे राजकुमारी थीं। उन्होंने भक्ति को केवल पूजा और वेदों की बातें नहीं माना, बल्कि वे हर सांस में कृष्ण का नाम बुलाया। वे हमेशा कृष्ण को याद करती, हंसती, रोती और जीती रहीं।

उनका दिल कृष्ण के लिए ऐसा आवेशजनक था कि जैसे वे प्रेम की अभावना में जल रही थीं। मीरा की कविताओं में यह दर्द स्पष्ट होता है, जब उन्होंने कहा कि उनका जीवन कृष्ण के बिना अधूरा है। मीरा ने भक्ति के इस मार्ग में सिर्फ प्रेम ही नहीं किया, बल्कि कई कठिनाइयों का सामना भी किया।

उनके परिवार ने उन्हें अपमानित किया, समाज ने उन्हें अपमानित किया, लेकिन वे कभी नहीं हारी। उनका कृष्ण के प्रति प्रेम इतना बलवान था कि उन्होंने जीवन और मौत दोनों को सहजता से स्वीकार कर लिया। ऐसे विश्वास और समर्पण के उदाहरण कम ही मिलते हैं और मीरा इस मामले में पूरी तरह से अद्वितीय थी।

उनके भक्तिमयी भावना में केवल प्यार ही नहीं, बल्कि एक गहरी धार्मिकता भी थी। उन्होंने अपने प्रेम को केवल भौतिक भावनाओं से नहीं जोड़ा, बल्कि उसे आध्यात्मिक साधना में परिणामित किया।

मीरा ने श्रीकृष्ण को बस एक मूर्ति नहीं माना, बल्कि उन्होंने उन्हें अपने हृदय में स्थान दिया। उनके शब्दों से भगवान कृष्ण के साथ की बातचीत का अहसास होता है, जैसे कि वे अपने यार के साथ बातें कर रही हैं। उनका कृष्ण के प्रति प्रेम सिर्फ व्यक्तिगत मामला नहीं था, उन्होंने साबित किया कि सच्ची भक्ति में जाति, लिंग या वर्ग का कोई भेद नहीं होता।

एक स्त्री होते हुए भी उन्होंने अपने समय की सीमाओं को चैलेंज किया और दिखाया कि हर आत्मा जो सच्चे दिल से प्रभु को बुलाती है, वह ईश्वर की कृपा पा सकती है।

उनकी भक्ति में एक तरह की विद्रोही भावना थी, लेकिन यह किसी सामाजिक आंदोलन का हिस्सा नहीं थी, बल्कि उस आत्मा की पुकार थी जो प्रभु के प्रेम में बंधनों से मुक्त होना चाहती थी। मीरा की कविताओं में उनकी भक्ति के कई रंग देखने को मिलते हैं।

कभी वे कृष्ण को प्रियतम मानकर उनके वियोग में रोती हैं,

कभी दोस्त की तरह उनसे शिकायत करती हैं

और कभी पति के रूप में उन्हें पुकारती हैं।

यह विविधता दिखाती है कि मीरा की भक्ति एक गहरी आध्यात्मिक यात्रा थी।

मीरा ने कृष्ण को सिर्फ एक प्रेमी नहीं, बल्कि अपने जीवन का केंद्र बना लिया।

उनके पदों में यह साफ नजर आता है कि ‘अब तो हरि ही मेरो जीवन है।’ मीरा की श्रीकृष्ण के प्रति भक्ति का सबसे उच्च रूप उस समय प्रकट होता है जब वह संसारिक जीवन से पूरी तरह मुक्त होकर केवल प्रभु की ओर बढ़ने के लिए तैयार हो जाती है।

जब वह द्वारका में श्री रणछोड़जी के मंदिर में जाती हैं और उनका विलीन हो जाती हैं, तो यह संकेत होता है कि उसकी भक्ति अपने चरम पर पहुँच गई है और वह भौतिकता को पार कर गई है।

मीरा के श्रीकृष्ण से यह एक मिलन उनके जीवन की परिपूर्णता और उच्चतम रूप में भक्ति का सबसे श्रेष्ठ स्थान बन गया। मीरा बाई के श्रीकृष्ण भक्ति ने भक्ति के मार्ग पर चलने वाले सभी साधकों को मार्गदर्शन किया।

यह साहित्य ही नहीं है, बल्कि एक साधना और प्रेम की प्रक्रिया है। यह उस सत्ता की आदि है जो हर बंधन को तोड़कर अपने परमेश्वर को खोजती है, और यह मीरा की व्यक्तिगत दुःख की बजाय उस आत्मा की पुकार है।

3. मीरा बाई की रचनाएं

मीरा बाई की रचनाएँ भक्ति साहित्य की मूल्यवान संपत्ति हैं। ये न केवल गहरी आध्यात्मिकता को व्यक्त करती हैं, बल्कि प्रेम, समर्पण और आत्म-समर्पण की गहरी भावनाएँ सरल भाषा में प्रस्तुत करती हैं।

उनकी कविताएँ और भजन शायद बहुत जटिल न हों, लेकिन उनमें वह भावनाएँ हैं जो उन्हें हमेशा के लिए अद्वितीय बनाती हैं। मीरा की रचनाओं में आत्मा की चहक, हृदय की पीड़ा और भगवान के प्रति प्रेम की गहराई बड़ी सहजता से दिखाई देती है।

उन्होंने अपने आराध्य श्रीकृष्ण के साथ संवाद के माध्यम से एक अनूठी भाषा विकसित की है, जो एक भक्त और भगवान के रिश्ते की गहराई को स्पष्ट करती है।

उनकी रचनाओं में भक्ति के कई रंग देखने को मिलते हैं। कभी-कभी वे पूरी तरह से श्रीकृष्ण के प्रेम में खोई हुई नजर आती हैं, और तो कभी विरह की पीड़ा में बहने लगती है जिसमें उनकी आवाज एक दर्दनाक पुकार बन जाती है। मीराबाई की कविताओं में प्रेम का मधुर स्वर है, जहां भगवान को प्रियतम के रूप में परिभाषित किया जाता है।

वे कृष्ण को अपने साथी के रूप में प्राप्त करती हैं और उनसे एक प्रेमिका की तरह बोलती हैं। इस प्रकार उनका काम एक स्त्री की आंतरिक इच्छा और आध्यात्मिक ऊँचाई का प्रदर्शन करता है, जो सांसारिक प्रेम से दूर दिव्य प्रेम में निहित है। मीरा ने अपने लेखन में ब्रज, राजस्थानी और गुजराती की जैसी लोक भाषाएं उपयोग किया जिनका प्रचलन उस समय में था।

उनकी भाषा सरल, भावनात्मक और सच्ची होती थी। वे अपने दिल की बातें सीधे तरीके से कहने पर ध्यान केंद्रित किया और इसलिए उनके लेखन मन को स्पर्श करते हैं। उनके लेखन में इतना भाव होता है कि शब्द केवल एक माध्यम हो जाते हैं। उसकी रचनाएँ किसी एक विधा तक सीमित नहीं हैं। वह कृष्ण के बचपन से लेकर युवावस्था तक और रासलीला से युद्धभूमि तक के विभिन्न रूपों का चित्रण करती है।

मीरा कभी कृष्ण से नाराज होती हैं, कभी उन्हें मनातीं हैं, कभी शिकायत करती हैं और कभी उनकी आराधना करती हैं। उनके प्रेम और पीड़ा, मिलन और बिछड़ने जैसे भाव पूरी सहजता से प्रवाहित होते हैं। विशेषकर उनके विरह गीतों में एक गहरी तड़प सुनाई देती है, जो अपने प्रियतम से मिलने की इच्छा को बयाँ करती है।

उनकी लेखनी से आज भी संत परंपरा का प्रभाव दिखाई देता है। उन्होंने संत रैदास को अपना गुरु माना और उनकी शिक्षाओं का मीराकी कविताओं में प्रतिबिम्ब भी पाया जा सकता है। उनकी कविताओं में केवल भक्ति ही नहीं, बल्कि सामाजिक जागरूकता भी है, जिसमें वे जातिवाद, लिंग भेद और सामाजिक ढांचों का मुकाबला करती हैं।

उनका दृष्टिकोण अत्यंत कोमल और शक्तिशाली है, क्योंकि यह सीधे आत्मा के गहराई से उभरता है। मीरा के लेख सिर्फ भक्ति के काव्य नहीं हैं, बल्कि ये आत्मा की खुशी और महिला शक्ति का भी संदेश देती हैं।

उन्होंने अपने रचनाओं में दर्शाया है कि एक महिला भी भगवान की उतनी ही अधिकारी हो सकती है जितना कोई पुरुष। कई बार उन्होंने दिखाया है उस समाज की पीड़ा को, जो उन्हें रोकने का प्रयास करता है, लेकिन उन्होंने अपने कविताओं में हर चुनौती को उलझा दिया और भगवान के प्रेम की शक्ति से सामना किया।

उनकी रचनाएँ आज भी उसी प्रासंगिकता के साथ हैं जो पहले थी। उनके काव्य आज भी मंदिरों, संगीत सभाओं और भजन मंडलों में सुनाई देते हैं। उनकी कविताएँ अब केवल पढ़ने के लिए ही नहीं हैं, बल्कि साधना का एक महत्वपूर्ण अंग बन चुकी हैं।

उनकी रचनाएँ वह उस आत्मा की कहानी हैं जो मायाजाल से पार करके अपने प्रेमी के प्रति श्रद्धा रखना चाहती है। मीराकी कविता एक मधुर स्वर है, जो हर दिल में अभिभूत करता है, जिसमें प्रेम की आग खिल उठती है।

4. मीरा बाई का इतिहास

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मीरा बाई की कहानी भारतीय भक्ति काल की विशेष एक महिला के बारे में है, जोने नये ढंग से धर्म, प्यार और आध्यात्म की परिभाषा दी। उन्होंने समाज की घोषित सीमाओं को चुनौती देकर आत्मा की स्वतंत्रता और महिलाओं के प्रति जागरूकता की आवाज उठाई। उनका जीवन किसी साधक या भक्त की तरह नहीं था,

बल्कि वह एक पूरे युग के बदलाव का प्रतीक बन गई। मीरा का जन्म 15वीं सदी में राजस्थान के मेड़ता नगर में हुआ था, और वह राठौड़ राजपरिवार की बेटी थी। उनके पिता, रतनसिंह राठौड़, मेड़ता के ठाकुर थे। इस परंपरागत परिवार से मिली शिक्षा और सम्मान ने मीरा के व्यक्तित्व को मजबूत किया।

मीरा ने बचपन से ही आध्यात्मिक रुचि रखी थी। एक बार उन्होंने एक साधु को श्रीकृष्ण की मूर्ति देते देखा और पूछा कि यह कौन है। जब बताया गया कि यह श्रीकृष्ण हैं, तो उन्होंने उन्हें अपना साथी मान लिया जीवन भर के लिए।

यह पल उनके जीवन में एक नए मोड़ की तरह था। मीरा का प्यार सिर्फ एक भावना नहीं था, बल्कि इसने उनके जीवन की आधारशिला का निर्माण किया। जब उनका विवाह भोजराज से हुआ, तो भी उन्होंने इसे सिर्फ एक सामाजिक औपचारिकता माना और अपने भीतर श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम को नहीं खोया।

उनके विवाह ने उन्हें राजसी सुख और सम्मान दिया था, लेकिन उनके दिल में जो कृष्ण प्रेम था, उसे किसी सांसारिक सुख से तृप्त नहीं हो सकता था। वे ने अपने प्रभु को अपने पति के रूप में स्वीकार किया।

शादी के बाद भी वे मंदिरों में जाकर भजन गाती रहीं। यह काम राजमहल में कठिनाई से भरा था, विशेषकर उस समय में जब महिलाओं से पर्दे में रहने के निर्देश दिए जाते थे और सीमाओं में बंधा जाता था।

मीरा की स्वतंत्रता और उनके भावों को सार्वजनिक करना समाज के लिए काफी आश्चर्यजनक था। “उन्होंने ससुराल में अपमान और यातनाओं का सामना करना पड़ा। कहा गया है कि उनके खिलाफ जेहर देने और अपमान करने का प्रयास किया गया, लेकिन उन्होंने अपना विश्वास नहीं छोड़ा।

उन्हें पता था कि उस समय महिलाओं के लिए समाज से लड़ना कितना कठिन होता है। लेकिन उन्होंने अपने प्यार को सच मानकर सभी कष्ट सहा। भोजराज की मृत्यु के बाद विरोध और बढ़ गया, लेकिन मीरा ने अपने कृष्ण को प्राथमिकता दी और तीर्थ यात्रा पर निकल पड़ी।” उनकी यात्रा सिर्फ भौगोलिक नहीं थी,

वह आत्मा की मुक्ति की यात्रा थी। वे वृंदावन, द्वारका और मथुरा जैसे कई तीर्थों पर जाकर घूमने गए। साधुओं और संतों से मिलकर उन्होंने अपने प्रेम की भावनाएं व्यक्त की। मीरा का यह त्याग और समर्पण वास्तव में अद्वितीय था।

वे अपनी भक्ति के माध्यम से लोगों के दिलों को छू गईं और शीघ्र ही एक भक्ति आंदोलन की पहचान बन गईं। मीरा बाई की कहानी सिर्फ एक भक्त की नहीं है, बल्कि एक क्रांतिकारी आत्मा की है, जिन्होंने समाज के संरचना पर प्रश्न खड़े किए। उन्होंने साबित किया कि ईश्वर हर वह दिल में वास करता है, जो उसे सच्चे मन से बुलाता है।

जाति, लिंग और सामाजिक स्थिति की मर्यादाओं से परे जाकर, मीरा ने प्रभु प्रेम की उस उंचाई तक पहुँचने का प्रयास किया, जहाँ भक्ति और भगवान के बीच कोई भेद नहीं रह जाता।

उनका शेष जीवन द्वारका में बीता, जहां उन्होंने श्री रणछोड़जी के मंदिर में अपने अंतिम दिन बिताए। कहा जाता है कि एक बार वे मंदिर गईं और फिर नहीं वापस आईं। यह सिर्फ एक सुनहरा पल नहीं था,

बल्कि भक्ति का चरम बिंदु था, जहां आत्मा परमात्मा में खो जाती है। मीरा का जीवन और उनकी कहानी हमें प्रेरणा देती है और आज भी भारतीय संस्कृति और भक्ति साहित्य में रोशनी फैलाए हुए है।

5. मीरा बाई मृत्यु

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मीरा बाई की मृत्यु और उनके जीवन के अंत के पल गहरी आदरभावना का अहसास कराते हैं। उनका अंत साधारण मृत्यु नहीं था, बल्कि लगता था कि वे अपनी भक्ति में पूरी तरह क्षीण हो गईं।

मीरा का जीवन सदैव एक साधना रहा है, और उनकी साधना उन्हें उस स्थान ले गई जहां उनकी आत्मा और भगवान का साक्षात्कार हुआ। मीरा ने अपने जीवन का अधिकांश समय भगवान कृष्ण की भक्ति में बिताया। जैसे-जैसे उनके अंतिम वर्ष आए, उनकी भक्ति और गहरी और स्थायी हो गई।

उन्होंने चित्तौड़गढ़ दुर्ग और मेड़ता जैसे स्थानों को छोड़कर द्वारका पहुंचीं, जहां उन्होंने भगवान कृष्ण के मंदिर में बसने का फैसला किया। वहां उन्होंने साध्वी का जीवन चुन लिया और प्रभु की भक्ति में समय बिताने लगीं।

दिन-रात वो भजन गातीं और अपने मन की आवाज़ को भगवान के चरणों में अर्पित करतीं। कहा जाता है कि उनका एक समय पूरी तरह आध्यात्मिक बन गया जब उनका सभी ध्यान भौतिकता से हट गया।

जब उनका शरीर कमजोर हो गया तो उनकी भावना लगातार बढ़ती रही। अंत में, उन्होंने अपने आखिरी पल द्वारका में श्रीकृष्ण की मूर्ति के पास बिताए, और उसी मूर्ति में समाहित हो गईं। मीरा एक बार मंदिर में प्रवेश करने पर घंटों तक बाहर नहीं आईं। इस दौरान उनके भक्तों ने देखा कि सिर्फ उनका वस्त्र ही मंदिर के सामने था।

यह उनके लिए एक चमत्कारी अनुभव था, जबकि उनके अनुयायियों के लिए यह आत्मा की पूर्णता की एक साधारण सी उपलब्धि थी। मीरा की इस अंत-लीला ने दिखाया कि सच्चे प्रेम की भक्ति में शरीर की सीमाएं खो जाती हैं। मीरा की मौत सिर्फ उनके जीवन का अंत नहीं था।

यह उनके संदेश की पुष्टि थी कि सच्चा प्रेम कभी नहीं मरता, वह हमेशा जीवित रहता है। उनकी शरीर की मौत वास्तविकता में एक नये अनुभव का आरंभ था। मीरा ने मौत को एक उत्सव की तरह स्वीकार किया और अपने जीवन को भगवान के प्रति समर्पित रखा।

उनके मरने के बाद, मीरा एक किंवदंती बन गईं। इस किंवदंती का मुख्य ध्येय उनकी भक्ति, साहस और ईश्वरप्रेम पर है। यह कहानी हमें यह शिक्षा देती है कि सच्चा प्रेम अमर है और इस विचार से हर युग में लोगों को प्रेरित किया जाता है।

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Author

  • Lalit Kumar

    नमस्कार प्रिय पाठकों,मैं ललित कुमार ( रवि ) हूँ। और मैं N.H.8 भीम, राजसमंद राजस्थान ( भारत ) के जीवंत परिदृश्य से आता हूँ।इस गतिशील डिजिटल स्पेस ( India Worlds Discovery | History ) प्लेटफार्म के अंतर्गत। में एक लेखक के रूप में कार्यरत हूँ। जिसने अपनी जीवनशैली में इतिहास का बड़ी गहनता से अध्ययन किया है। जिसमे लगभग 6 साल का अनुभव शामिल है।वही ब्लॉगिंग में मेरी यात्रा ने न केवल मेरे लेखन कौशल को निखारा है। बल्कि मुझे एक बहुमुखी अनुभवी रचनाकार के रूप में बदल दिया है। धन्यवाद...

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