सिंखों के 10वें गुरु कहे जाने वाले Guru Gobind Singh Ji. जिन्होंने धर्म के विरुद्ध जिंदगीभर किया संघर्ष. जिनका सबसे बड़ा योगदान खालसा पंथ की स्थापना करना है.
1. गुरु गोबिंद सिंह का परिचय | Guru Gobind Singh Ji

Guru Gobind Singh Ji जिन्हें बचपन में guru gobind rai नाम से भी जाना जाता था. वह सिख धर्म के दसवें और आखिरी गुरु थे, और उनका जीवन, विचार और काम भारत के धार्मिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक इतिहास में एक प्रेरणा की तरह है। उनका जन्म 22 दिसंबर 1666 को पटना साहिब (आज के बिहार) में हुआ था, उनके पिता का नाम गुरु तेग बहादुर और मां का नाम गुजरी देवी था। उनका असली नाम गोबिंद राय था। वे एक महान धार्मिक नेता के साथ-साथ एक योद्धा, कवि, दार्शनिक और अपने देश के रक्षक भी थे।
Guru Gobind Singh Ji का जीवन हमेशा से संघर्ष और साहस से भरा रहा। जब वे सिर्फ नौ साल के थे, तब उनके पिता गुरु तेग बहादुर को मुगल शासक औरंगज़ेब ने इस्लाम स्वीकार न करने के कारण दिल्ली में शहीद कर दिया। इसके बाद, 1675 में, उन्हें सिखों का दसवां गुरु घोषित किया गया। उन्होंने इस जिम्मेदारी को पूरी निष्ठा और समर्पण के साथ निभाया।
Guru Gobind Singh Ji का सबसे बड़ा योगदान खालसा पंथ की स्थापना है, जिसे उन्होंने 1699 में वैशाखी के दिन आनंदपुर साहिब में शुरू किया। उन्होंने “पाँच प्यारों” का चुनाव कर एक ऐसा समुदाय बनाया जो धर्म की रक्षा, न्याय की स्थापना और अन्याय के खिलाफ खड़े होने के लिए समर्पित था। खालसा पंथ के अनुयायियों को उन्होंने ‘सिंह’ उपनाम दिया और उन्हें पाँच ककार – केस, कंघा, कृपाण, कड़ा और कच्छा पहनने का आदेश दिया। इससे सिख समुदाय एक संगठित और अनुशासित सेना के रूप में उभरा।
Guru Gobind Singh Ji ने अपने जीवन में धार्मिक सहिष्णुता और सामाजिक समानता को बढ़ावा दिया। वे मानते थे कि ईश्वर एक है और सभी मनुष्यों को समान रूप से देखा जाना चाहिए। उन्होंने ब्राह्मणवाद, छुआछूत और जाति-पाति के भेदभाव का विरोध किया। उनका दर्शन मानवता, वीरता और नैतिकता पर आधारित था।
Guru Gobind Singh Ji को कई युद्धों में भाग लेना पड़ा, खासकर मुगलों और पहाड़ी राजाओं के खिलाफ। उन्होंने कठिन परिस्थितियों में भी कभी अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। उन्होंने धर्मयुद्ध में अपने चार पुत्रों को खोया, फिर भी उनका हौसला नहीं टूटा। उन्होंने अपने अनुयायियों को धर्म की राह पर अडिग रहने के लिए प्रेरित किया, हमेशा साहस और धैर्य का परिचय देते हुए।
गुरु गोबिंद सिंह ने साहित्य में भी योगदान दिया। उन्होंने ‘दशम ग्रंथ’ की रचना की, जिसमें वीर रस की कविताएँ, धार्मिक उपदेश और नैतिक शिक्षा शामिल हैं। वे संस्कृत, ब्रज, फारसी और पंजाबी जैसी भाषाओं में निपुण थे।
1708 में, नांदेड़ (महाराष्ट्र) में एक मुस्लिम हमलावर के हमले में Guru Gobind Singh Ji को गंभीर चोट आई। वहीं उन्होंने यह घोषणा की कि अब सिखों के लिए कोई जीवित गुरु नहीं होगा, बल्कि “गुरु ग्रंथ साहिब” ही उनका स्थायी गुरु होगा।
1.1 गुरु गोबिंद सिंह के शरीर का परिचय
Guru Gobind Singh Ji सिर्फ एक महान आध्यात्मिक गुरु नहीं थे, बल्कि एक बहादुर योद्धा भी थे। उनका शरीर संत और सैनिक दोनों का प्रतीक था — ताकतवर, दृढ़, और आत्म-नियंत्रित। उनकी शारीरिक बनावट ऐसी थी कि वे युद्ध के मैदान में लंबे समय तक लड़ सकते थे, साथ ही ध्यान और साधना में भी माहिर थे।
इतिहास और सिख ग्रंथों के अनुसार, गुरु गोबिंद सिंह का शरीर सुगठित, ऊर्जावान और बेहद तेजस्वी था। उनकी उपस्थिति में एक खास आभा थी, जो आम लोगों को भी आकर्षित करती थी। वे घुड़सवारी, तलवारबाज़ी, धनुर्विद्या, और युद्ध कौशल में बेहद कुशल थे। उनके शरीर में शक्ति और संतुलन का अद्भुत मेल था, जिससे वे युद्ध के समय निर्भीकता से लड़ते थे और शांत समय में साधकों की तरह ध्यान में रहते थे।
Guru Gobind Singh Ji का पहनावा भी उनकी वीरता को बखूबी दर्शाता था। वे कड़ा, कृपाण, केस, कच्छा और कंघा पहनते थे — जिन्हें हम पाँच ककार कहते हैं। ये सिर्फ धार्मिक प्रतीक नहीं थे, बल्कि उनके योद्धा व्यक्तित्व की पहचान भी थे।
उनका शरीर केवल शारीरिक शक्ति का प्रतीक नहीं था, बल्कि उनके भीतर एक अद्भुत मानसिक और आत्मिक शक्ति भी थी। उन्होंने अपने जीवन में कई मुश्किलों और युद्धों का सामना किया, चार पुत्रों और माता को खोया, फिर भी कभी भी अपने शरीर या मन से विचलित नहीं हुए।
1.2 गुरु गोबिंद सिंह का परिवार
Guru Gobind Singh Ji जी का परिवार भारतीय इतिहास का एक अनमोल हिस्सा है, जिसमें त्याग, बलिदान, धर्म की रक्षा और वीरता की अनगिनत कहानियाँ शामिल हैं। उनका परिवार सिख धर्म की नींव को मजबूत करने में बेहद महत्वपूर्ण था और उन्होंने अपने धर्म की रक्षा के लिए खुद को बलिदान देने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी।
गुरु गोबिंद सिंह जी का जन्म 22 दिसंबर 1666 को पटना साहिब, बिहार में हुआ। उनके पिता गुरु तेग बहादुर सिखों के नौवें गुरु थे, जो धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले पहले प्रमुख सिख गुरु माने जाते हैं। औरंगज़ेब के ज़बरदस्त इस्लामीकरण के खिलाफ उन्होंने दिल्ली के चांदनी चौक में शहादत दी। गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने पिता के बलिदान को धर्म की रक्षा की सबसे ऊँची मिसाल माना, और यही सोच उनके पूरे परिवार के जीवन में झलकती है।
उनकी माता, माता गुजरी, एक धार्मिक और साहसी महिला थीं। उन्होंने कठिन समय में अपने बेटों को धर्म और साहस की शिक्षा दी। खासकर जब छोटे साहिबज़ादों ने शहादत दी, तब वे उनके साथ थीं और उन्होंने भी अंतिम समय में शहादत को स्वीकार किया।
Guru Gobind Singh Ji जी की तीन पत्नियाँ थीं – माता जीतो, माता सुंदरी, और माता साहिब कौर। माता साहिब कौर को “माता साहिब देवान” के नाम से भी जाना जाता है और उन्हें खालसा की आध्यात्मिक माता माना जाता है।
गुरु गोबिंद सिंह जी के चार बेटे थे:
- साहिबज़ादा अजीत सिंह
- साहिबज़ादा जुझार सिंह
- साहिबज़ादा ज़ोरावर सिंह
- साहिबज़ादा फतेह सिंह
इन चारों साहिबज़ादों ने कम उम्र में ही धर्म के लिए अपनी जान दे दी। अजीत सिंह और जुझार सिंह आनंदपुर साहिब की लड़ाई में शहीद हुए, जबकि छोटे साहिबज़ादे ज़ोरावर और फतेह सिंह को सरहिंद में जीवित दीवार में चिनवा दिया गया। उनका यह बलिदान आज भी सिख इतिहास और भारत के लिए प्रेरणा का स्रोत बना हुआ है।
1.3 गुरु गोबिंद सिंह का विवाह

1. माता जीतो (अजित कौर)
Guru Gobind Singh Ji का पहला विवाह 1677 में माता जीतो से हुआ, जिन्हें बाद में माता अजित कौर के नाम से भी जाना गया। यह शादी आनंदपुर साहिब में हुई। माता जीतो से उन्हें तीन बेटे हुए —
- साहिबज़ादा अजीत सिंह
- साहिबज़ादा जुझार सिंह
- साहिबज़ादा ज़ोरावर सिंह
माता जीतो एक धर्मपरायण, समझदार और साहसी महिला थीं। जब खालसा पंथ की स्थापना हुई, तब 1699 की बैसाखी के दिन उन्होंने अमृत बनाने की रस्म में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्हें गुरुगृह की मर्यादा और सेवा के बारे में गहरी जानकारी थी।
2. माता सुंदरी
Guru Gobind Singh Ji का दूसरा विवाह 1684 में माता सुंदरी से हुआ। माता सुंदरी से उन्हें एक बेटा हुआ — साहिबज़ादा जोरावर सिंह (कुछ लोग मानते हैं कि ये माता जीतो से थे)। माता सुंदरी सरल स्वभाव, सहनशील और धर्मनिष्ठ महिला थीं। गुरु गोबिंद सिंह की शहादत के बाद, उन्होंने दिल्ली में रहकर सिख संगत को मार्गदर्शन दिया और सिख धर्म को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
3. माता साहिब कौर (साहिब देवान)
Guru Gobind Singh Ji का तीसरा विवाह माता साहिब कौर से हुआ, जिन्हें सिख परंपरा में “खालसा की माता” के तौर पर बहुत सम्मान मिलता है। उनसे गुरु जी को कोई संतान नहीं हुई, लेकिन गुरु जी ने उन्हें खालसा पंथ की आध्यात्मिक माता का दर्जा दिया। माता साहिब कौर ने खालसा की मर्यादा और सेवा में अपना जीवन समर्पित कर दिया।
2. गुरु गोबिंद सिंह की वीरता और बहादुरी
Guru Gobind Singh Ji सिख धर्म के दसवें और आखिरी मानव गुरु थे, जिनकी बहादुरी और वीरता भारतीय इतिहास में हमेशा याद रखी जाएगी। उनका जीवन संघर्ष, बलिदान, आत्म-सम्मान और धर्म की रक्षा के लिए समर्पण का बेहतरीन उदाहरण है। उन्होंने सिर्फ शस्त्रों से ही नहीं, बल्कि अपने विचारों, सिद्धांतों और अदम्य साहस से भी अत्याचार और अन्याय के खिलाफ आवाज उठाई।
गुरु गोबिंद सिंह का बचपन कठिनाइयों से भरा रहा। जब वह सिर्फ 9 साल के थे, तब उन्होंने अपने पिता गुरु तेग बहादुर की शहादत देखी, जो कश्मीरी पंडितों और धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए हुई थी। इसके बाद, जब उन्होंने गुरु का पद संभाला, तो उन्होंने अपने अनुयायियों को अन्याय के खिलाफ खड़े होने के लिए प्रेरित किया।
1699 में, उन्होंने खालसा पंथ की स्थापना की, जिससे एक नई क्रांतिकारी परंपरा की शुरुआत हुई। उन्होंने आम लोगों को “सिंह” बना कर उनमें शौर्य, आत्मबल और आत्मगौरव का संचार किया। खालसा पंथ सिर्फ एक धार्मिक समुदाय नहीं था, बल्कि एक ऐसी सैन्य शक्ति थी जो अत्याचार और अन्याय के खिलाफ लड़ने के लिए तैयार थी।
Guru Gobind Singh Ji ने मुगलों और पहाड़ी राजाओं के खिलाफ 21 से ज्यादा युद्धों का नेतृत्व किया, जहां उन्होंने अद्वितीय वीरता दिखाई। आनंदपुर साहिब की लड़ाई, चमकौर की गढ़ी का युद्ध, और नांदेड़ में हुआ उनका अंतिम संघर्ष उनकी बहादुरी की बेहतरीन मिसाल हैं। चमकौर के युद्ध में उनके दो बड़े बेटे अजीत सिंह और जुझार सिंह ने वीरगति को प्राप्त किया, फिर भी उन्होंने युद्ध जारी रखा।
गुरु जी की वीरता सिर्फ शारीरिक ताकत में ही नहीं थी, बल्कि उनके धार्मिक धैर्य, आत्मबल और नैतिक दृढ़ता में भी झलकती थी। उन्होंने अपने चारों बेटों और मां को खो दिया, लेकिन कभी हार नहीं मानी और अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया।
3. गुरु गोबिंद सिंह का शुरुआत से अंतिम तक संघर्ष

Guru Gobind Singh Ji का जीवन एक अद्भुत संघर्ष की कहानी है, जिसमें धर्म, न्याय, और मानवता की रक्षा के लिए उनके बलिदान और साहस की कई मिसालें देखने को मिलती हैं। उनका जन्म 22 दिसंबर 1666 को पटना साहिब में हुआ। बचपन से ही उन्होंने अन्याय के खिलाफ खड़े होने का जज़्बा अपने अंदर विकसित किया। जब वह सिर्फ नौ साल के थे, तब उन्होंने अपने पिता, गुरु तेग बहादुर को कश्मीरी हिंदुओं की रक्षा करते हुए शहीद होते देखा, और तभी उन्होंने धर्म की रक्षा का संकल्प लिया।
जब गुरु गोबिंद सिंह ने दसवें गुरु के रूप में अपनी जिम्मेदारी संभाली, तब भारत में मुगल साम्राज्य का अत्याचार अपने चरम पर था। उन्होंने सिख धर्म को सिर्फ एक धार्मिक मार्ग नहीं, बल्कि एक संघर्षशील और आत्म-सम्मान से भरी जीवनशैली में बदल दिया। 1699 में उन्होंने खालसा पंथ की स्थापना की, जो उनके संघर्ष की सबसे महत्वपूर्ण पहल थी। इसके जरिए उन्होंने एक संगठित, शस्त्रधारी, और नैतिकता से भरे समाज का निर्माण किया, जो अन्याय के खिलाफ खड़ा हो सके।
Guru Gobind Singh Ji को मुगलों और पहाड़ी राजाओं दोनों से लड़ना पड़ा, जो उनकी बढ़ती ताकत से घबराए हुए थे। आनंदपुर साहिब की घेराबंदी, चमकौर की लड़ाई, और मुखलसर की लड़ाई जैसे कई संघर्षों में उन्होंने अद्भुत वीरता दिखाई। चमकौर की लड़ाई में उन्होंने अपने दो बेटों को लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त होते देखा, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी।
गुरु गोबिंद सिंह को केवल बाहरी दुश्मनों से ही नहीं, बल्कि अपने अनुयायियों को आत्मबल, अनुशासन, और धर्म के मार्ग पर बनाए रखने का भी संघर्ष करना पड़ा। उन्होंने अपने अंतिम समय में यह घोषणा की कि अब कोई जीवित गुरु नहीं होगा और गुरु ग्रंथ साहिब ही सिखों का मार्गदर्शक होगा।
1708 में नांदेड़ में एक विश्वासघाती हमले में Guru Gobind Singh Ji को गंभीर चोट लगी, और वहीं उन्होंने अपने शरीर का त्याग किया। लेकिन उनका संघर्ष आज भी जीवित है — एक आदर्श, एक प्रेरणा, और धर्म के रक्षक के रूप में।
4. गुरु गोबिंद सिंह की युद्धनीति
खालसा पंथ की स्थापना
1699 में खालसा पंथ की शुरुआत गुरु जी की एक बड़ी रणनीति थी, जो न केवल सैन्य बल्कि नैतिकता से भी जुड़ी थी। उन्होंने आम लोगों को ‘सिंह’ का दर्जा देकर उनमें योद्धा बनने का जज्बा जगाया। खालसा को पाँच ककार (केश, कड़ा, कृपाण, कंघा और कच्छा) पहनने का निर्देश देकर उन्होंने अनुशासन, आत्मरक्षा और एकता का प्रतीक स्थापित किया।
गुरिल्ला युद्ध तकनीक
Guru Gobind Singh Ji ने अपनी युद्ध नीति में गुरिल्ला युद्ध की तकनीक को खास महत्व दिया। छोटे समूहों में छिपकर, तेजी से हमला करने और फिर तुरंत पीछे हटने की रणनीति अपनाकर, उन्होंने मुगलों और पहाड़ी राजाओं की बड़ी सेनाओं को कई बार मात दी।
साहस और बलिदान की प्रेरणा
Guru Gobind Singh Ji की सोच सिर्फ युद्ध जीतने तक सीमित नहीं थी; यह बलिदान की भावना पर आधारित थी। उन्होंने अपने चारों बेटों को धर्म के लिए युद्ध में बलिदान होते देखा, फिर भी उनका हौंसला कभी नहीं टूटा। उन्होंने अपने अनुयायियों को भी सिखाया कि धर्म और सत्य की रक्षा के लिए अपनी जान देना सबसे बड़ा कर्तव्य है।
धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा
Guru Gobind Singh Ji की युद्ध नीति किसी विशेष धर्म के खिलाफ नहीं थी, बल्कि यह धार्मिक स्वतंत्रता और नैतिक मूल्यों की सुरक्षा के लिए थी। वे मानवता, समानता और सेवा के सिद्धांतों को सबसे महत्वपूर्ण मानते थे।
5. गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा लड़े गए ऐतिहासिक युद्ध

1. भंगानी का युद्ध (1688)
यहGuru Gobind Singh Ji का पहला बड़ा युद्ध था, जो उन्होंने हिमाचल प्रदेश के भंगानी नामक स्थान पर पहाड़ी राजाओं के खिलाफ लड़ा। जैसे-जैसे गुरु जी की शक्ति और लोकप्रियता बढ़ने लगी, कई पहाड़ी राजा, जैसे भीमचंद (कहलों के राजा), उनके खिलाफ हो गए। उन्होंने मिलकर गुरु जी पर हमला करने का फैसला किया। हालांकि उनकी संख्या ज्यादा थी, लेकिन गुरु गोबिंद सिंह के नेतृत्व में सिखों ने शानदार जीत हासिल की। इस युद्ध ने साबित कर दिया कि सिख अब सिर्फ एक धार्मिक समुदाय नहीं, बल्कि एक मजबूत सैन्य शक्ति भी बन चुके हैं।
2. नादौन का युद्ध (1691)
यह युद्ध Guru Gobind Singh Ji और मुगल सूबेदार के बीच हुआ, जब मुगलों ने पहाड़ी राजाओं से टैक्स वसूलने की कोशिश की। गुरु जी ने पहाड़ी राजाओं की ओर से मुगलों के खिलाफ मोर्चा संभाला और इस संघर्ष में जीत हासिल की। यह युद्ध दिखाता है कि गुरु जी सिर्फ सिखों के नहीं, बल्कि धर्म और न्याय के लिए हर अन्याय के खिलाफ खड़े होते थे।
3. गुलाब चंद और हुसैन खाँ के खिलाफ युद्ध
इन लड़ाइयों में गुरु जी ने मुस्लिम आक्रमणकारियों के खिलाफ बहादुरी से मोर्चा संभाला। मुगलों ने हुसैन खाँ और गुलाब चंद जैसे सेनानायकों को भेजकर कई बार गुरु जी को हराने की कोशिश की, लेकिन हर बार सिख सेना के साहस और गुरु जी की रणनीति के आगे वे असफल रहे।
4. आनंदपुर साहिब की घेराबंदी (1700–1705)
Guru Gobind Singh Ji के खिलाफ मुगलों और पहाड़ी राजाओं ने मिलकर आनंदपुर साहिब पर कई बार हमला किया। यह स्थान गुरु जी की सैन्य और धार्मिक गतिविधियों का मुख्य केंद्र था। पांच साल तक लगातार हमले होते रहे। अंत में, एक विश्वासघात के चलते गुरु जी को आनंदपुर छोड़ना पड़ा। इस दौरान उन्हें बहुत बड़े बलिदान देने पड़े — उनके चारों पुत्र, माता गुजरी और कई अनुयायी शहीद हो गए।
5. चमकौर की गढ़ी का युद्ध (1705)
यह Guru Gobind Singh Ji के जीवन का सबसे प्रसिद्ध और गौरवमयी युद्ध माना जाता है। मुगल सेना ने चमकौर की एक छोटी गढ़ी में गुरु जी और उनके 40 अनुयायियों को घेर लिया। कठिन हालात में भी गुरु जी ने अद्भुत साहस दिखाया। उनके दो बड़े पुत्र, अजीत सिंह और जुझार सिंह, इसी युद्ध में शहीद हुए। यह युद्ध बलिदान, वीरता और आत्मबल की एक बेहतरीन मिसाल है।
6. मुखलसर और मालेरकोटला के खिलाफ युद्ध
आनंदपुर से निकलने के बाद, Guru Gobind Singh Ji ने मुखलसर और मालेरकोटला के शासकों के खिलाफ भी संघर्ष किया। ये लड़ाइयाँ उन स्थानीय राजनीतिक और धार्मिक विरोधियों के खिलाफ थीं, जिन्होंने गुरु जी की राह में बाधाएँ खड़ी कीं।
7. नांदेड़ और अंतिम संघर्ष (1708)
Guru Gobind Singh Ji अपने अंतिम दिनों में नांदेड़ पहुँचे, जहाँ वे सिखों को एक नए ढंग से संगठित कर रहे थे। वहीं एक पठान हमलावर ने उन पर हमला किया, जिससे वे गंभीर रूप से घायल हो गए और कुछ ही दिनों बाद उनका निधन हो गया। उन्होंने अपनी अंतिम वाणी में कहा कि अब गुरु ग्रंथ साहिब ही सिखों का गुरु होगा।
6. गुरु गोबिंद सिंह का इतिहास
6.1 गुरु गोबिंद सिंह केसे बने सिंखो के 10वें गुरु | Guru Gobind Singh Ji
1. गुरु तेग बहादुर का बलिदान
Guru Gobind Singh Ji के जीवन का एक महत्वपूर्ण पल तब आया जब उनके पिता, गुरु तेग बहादुर, ने कश्मीरी पंडितों की धार्मिक आज़ादी की रक्षा के लिए अपने प्राणों की बाज़ी लगाई। मुगल सम्राट औरंगज़ेब ने लोगों को जबरन इस्लाम अपनाने के लिए परेशान करना शुरू कर दिया था। इस मुश्किल समय में कश्मीरी पंडितों ने गुरु तेग बहादुर से मदद मांगी। उन्होंने दिल्ली जाकर औरंगज़ेब के दरबार में अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाई, जिसके नतीजे में उन्हें 1675 में शहीद कर दिया गया।
जब गुरु तेग बहादुर की शहादत की खबर आनंदपुर साहिब पहुँची, तब उनके सिर्फ 9 साल के बेटे गोबिंद राय ने अपने पिता की जगह सिखों का नेतृत्व करने की जिम्मेदारी संभाली। सिख परंपरा के अनुसार, गुरु गोबिंद सिंह को 1675 में सिखों का दसवाँ गुरु घोषित किया गया।
2. गुरु बनने की प्रक्रिया
गुरु तेग बहादुर के बलिदान के बाद सिख संगत ने गोबिंद राय को औपचारिक रूप से गुरु पद पर प्रतिष्ठित किया। उनकी उम्र भले ही कम थी, लेकिन उनका साहस, बुद्धिमानी और नेतृत्व क्षमता अद्भुत थी। उन्होंने उस समय के समाज में फैले अन्याय, धार्मिक कट्टरता और भेदभाव के खिलाफ सिखों को संगठित करने की ठानी।
वे सिर्फ एक धार्मिक नेता नहीं बने, बल्कि उन्होंने सिख धर्म को एक सैन्य ताकत में बदलने का भी काम किया। उन्होंने अपने अनुयायियों को आत्मरक्षा, बहादुरी, और धर्म की रक्षा के लिए तैयार किया।
3. गुरु गोबिंद सिंह की गुरु परंपरा में भूमिका
Guru Gobind Singh Ji जी ने सिख धर्म की परंपरा को केवल आध्यात्मिक गुरु के रूप में नहीं निभाया, बल्कि उन्होंने धर्म को एक जीवनशैली, एक मर्यादा और जिम्मेदारी का रूप दिया। उन्होंने अपने अंतिम समय में यह घोषणा की कि अब कोई जीवित गुरु नहीं होगा, बल्कि “गुरु ग्रंथ साहिब” ही सिखों का सच्चा गुरु होगा। यह निर्णय उनके नेतृत्व और दूरदर्शिता का एक बड़ा उदाहरण था।
6.2 गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा लिखित रचनाएं
Guru Gobind Singh Ji जी सिर्फ एक महान संत नहीं थे, बल्कि एक बेहतरीन कवि, लेखक और दार्शनिक भी थे। उनकी रचनाएँ वीरता, धर्म, नीति, भक्ति, आत्मबल और मानवीय मूल्यों से भरी हुई हैं। उन्होंने अपने लेखन से सिख धर्म को और मजबूत किया और समाज में नैतिकता, न्याय और आत्मगौरव का संदेश फैलाया। उनके काव्य में वीर रस, भक्ति और आत्मबल का अद्भुत मेल देखने को मिलता है।
Guru Gobind Singh Ji जी ने ब्रज, संस्कृत, पंजाबी, फारसी और अरबी जैसी कई भाषाओं में कविताएँ लिखीं। उनके जीवनकाल में उन्होंने कई ग्रंथों की रचना की, जिनमें से कुछ प्रमुख हैं:
1. जाफरनामा (Zafarnama)
यह एक प्रसिद्ध पत्र है, जिसे Guru Gobind Singh Ji जी ने मुगल बादशाह औरंगज़ेब को लिखा। उन्होंने यह पत्र तब लिखा जब उन्होंने चमकौर की लड़ाई में अद्भुत साहस दिखाया और औरंगज़ेब के विश्वासघात की निंदा की। इसमें उन्होंने शासक के झूठ और अन्याय का खुलासा किया। इसे एक महत्वपूर्ण राजनीतिक और नैतिक दस्तावेज माना जाता है।
2. दशम ग्रंथ / दशम ग्रंथ साहिब (Dasam Granth)
यह Guru Gobind Singh Ji जी की सबसे प्रसिद्ध रचना है, जिसमें उनके द्वारा लिखी गई कई कविताएँ शामिल हैं। यह “गुरु ग्रंथ साहिब” से अलग है और सिख साहित्य में इसका खास स्थान है। इसमें भक्ति, नीति, युद्ध, देवी-देवताओं की कथाएँ और आत्मज्ञान से जुड़ी रचनाएँ हैं। दशम ग्रंथ की कुछ प्रमुख रचनाएँ हैं:
(क) जाप साहिब (Jaap Sahib)
यह एक महत्वपूर्ण स्तुति है जिसमें भगवान के 950 से ज्यादा नामों के जरिए उनकी महानता और सर्वव्यापकता का वर्णन किया गया है। यह खालसा पंथ की प्रार्थना का हिस्सा है।
(ख) अकाल उस्तत (Akal Ustat)
इस रचना में Guru Gobind Singh Ji ने अकाल पुरुख (ईश्वर) की स्तुति की है। उन्होंने बताया कि भगवान न किसी धर्म का है और न किसी रूप का, बल्कि वह एक निराकार और सर्वशक्तिमान है।
(ग) बछित्र नाटक (Bachittar Natak)
यह Guru Gobind Singh Ji जी की आत्मकथा है, जिसमें उन्होंने अपने जीवन, उद्देश्य और ईश्वर से मिली प्रेरणाओं का जिक्र किया है। इसमें उनके पूर्वजों और अपने संघर्षों की कहानी भी है।
(घ) चंडी दी वार (Chandi di Var)
यह रचना देवी चंडी (दुर्गा) की वीरता की कहानी है। इसमें Guru Gobind Singh Ji ने युद्ध और धर्म के प्रतीक के रूप में देवी की स्तुति की है। यह रचना वीर रस से भरी हुई है और खालसा पंथ के लिए प्रेरणा का स्रोत है।
(ङ) त्रिया चरित्र (Triya Charitra)
इसमें महिलाओं के विभिन्न स्वभावों और चालाकियों का वर्णन किया गया है। इसका उद्देश्य नैतिकता और आत्मसंयम के महत्व को समझाना है।
(च) शब्द हजारे, स्वैय्ये, कबित्त, शस्त्रनाममाला आदि
इन रचनाओं में Guru Gobind Singh Ji ने जीवन के विभिन्न पहलुओं जैसे धर्म, नीति, सत्य, प्रेम, युद्ध और नेतृत्व का वर्णन किया है।
3. सरबलोह ग्रंथ (Sarbloh Granth)
कुछ विद्वान इसे भी Guru Gobind Singh Ji की रचना मानते हैं, हालांकि इस पर कुछ विवाद है। यह ग्रंथ खालसा की महिमा, शक्ति और आत्मबल के सिद्धांतों को प्रस्तुत करता है।
6.3 गुरु गोबिंद सिंह द्वारा पंच प्यारे की दास्तां और खालसा पंथ की स्थापना

Guru Gobind Singh Ji द्वारा पंच प्यारे की कहानी भारतीय इतिहास और सिख धर्म की सबसे प्रेरणादायक और क्रांतिकारी घटनाओं में से एक है। यह न केवल आध्यात्मिक उन्नयन की बात है, बल्कि साहस, समर्पण, समानता और संगठन की एक बेहतरीन मिसाल भी है। यह घटना 1699 ईस्वी के बैसाखी पर्व पर हुई, जब गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना की और पाँच समर्पित व्यक्तियों को “पंच प्यारे” के रूप में सम्मानित किया।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
17वीं शताब्दी के अंत तक भारत में मुगलों का अत्याचार, धर्मांतरण और हिंसा अपने चरम पर था। गुरु गोबिंद सिंह ने इस समय में सिख समुदाय को आत्मरक्षा, साहस और धर्म की रक्षा के लिए संगठित करने का संकल्प लिया। उनका उद्देश्य एक ऐसा पंथ खड़ा करना था जो केवल उपदेशों तक सीमित न हो, बल्कि अत्याचार के खिलाफ खड़ा हो सके।
बैसाखी 1699: ऐतिहासिक दिन
1699 में आनंदपुर साहिब में एक विशाल सभा आयोजित की गई, जिसमें दूर-दूर से हजारों सिख एकत्रित हुए। सभा के बीच में गुरु गोबिंद सिंह एक तलवार लेकर मंच पर आए और बोले, “मुझे एक सिर चाहिए, कौन है जो धर्म के लिए अपना सिर देगा?”
इस अप्रत्याशित मांग से लोग चौंक गए। कुछ क्षणों के मौन के बाद एक व्यक्ति आगे आया, जिसका नाम था दया राम, जो लाहौर से था। गुरु जी उसे तंबू के भीतर ले गए और कुछ देर बाद अकेले बाहर आए, तलवार खून से सनी हुई प्रतीत हुई। फिर उन्होंने वही माँग दोहराई।
इस तरह चार और व्यक्ति क्रमशः सामने आए:
- धर्म दास – दिल्ली से
- मोही राम – द्वारका (गुजरात) से
- हिम्मत राय – जगन्नाथ पुरी (उड़ीसा) से
- साहिब चंद – बीदर (कर्नाटक) से
गुरु जी ने पाँचों को तंबू में ले जाकर “शहीद” किया, लेकिन बाद में सभी को जीवित और पूर्ण वस्त्रों में सुसज्जित करके बाहर लाए। सब लोग हैरान रह गए। तब गुरु जी ने घोषणा की, “ये हैं मेरे पाँच प्यारे, जिन्होंने धर्म के लिए अपना सिर देने से पीछे नहीं हटे। यही सच्चे खालसा हैं।”
अमृत छकाना और खालसा पंथ की स्थापना
Guru Gobind Singh Ji ने एक लोहे की कड़ाही में जल, शक्कर और एक दोधारी तलवार डालकर “अमृत” तैयार किया। इसके बाद उन्होंने पंच प्यारों को वह अमृत पिलाकर उन्हें खालसा के रूप में दीक्षित किया। फिर उन्होंने उनसे भी अमृत लिया — और इस तरह गुरु गोबिंद सिंह खुद भी खालसा बन गए। यह गुरु और शिष्य के बीच की समानता का अद्भुत उदाहरण था।
खालसा के सिद्धांत
गुरु जी ने खालसा को पाँच “ककार” (5 Ks) धारण करने का आदेश दिया:
- केश – बिना कटे बाल
- कड़ा – लोहे का ब्रेसलेट
- कृपाण – आत्मरक्षा हेतु तलवार
- कंघा – लकड़ी की कंघी
- कच्छा – विशेष प्रकार का अंडरवियर (शुद्धता और त्याग का प्रतीक)
इसके साथ ही खालसा को झूठ, भय, जातिवाद, छुआछूत, और अधर्म से लड़ने का आदेश मिला। सभी को समानता, सेवा, न्याय और वीरता के मार्ग पर चलने की शिक्षा दी गई।
पंच प्यारे कौन थे?
- भाई दया सिंह – लाहौर से, क्षत्रिय
- भाई धर्म सिंह – हस्तिनापुर (मेरठ) से, जाट
- भाई हिम्मत सिंह – जगन्नाथ पुरी से, मझबी जाति
- भाई मोहकम सिंह – द्वारका से, दर्जी जाति
- भाई साहिब सिंह – बीदर से, नाई जाति
इन पाँचों का चयन इस बात का प्रतीक था कि सिख धर्म में जाति, क्षेत्र, वर्ग या पेशा कोई मायने नहीं रखता, बल्कि भक्ति, साहस और सेवा भावना सबसे ऊपर है।
पंच प्यारों की भूमिका
पंच प्यारे सिर्फ प्रतीकात्मक नहीं थे, वे गुरु जी के प्रमुख सलाहकार, धर्म प्रचारक और युद्धभूमि में सेनापति भी बने। इन्होंने सिख धर्म को एक सजीव, संगठित और बलिदानी परंपरा में बदल दिया।
7. गुरु गोबिंद सिंह का निधन एवं उनके अंतिम पल

Guru Gobind Singh Ji जी का जीवन सिख धर्म, भारतीय इतिहास और धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए एक प्रेरणादायक कहानी है। उनका जीवन बलिदानों, संघर्षों, आध्यात्मिकता और संगठन का एक बेहतरीन उदाहरण है। उन्होंने अपने चारों बेटों और पिता को धर्म की रक्षा में शहीद होते देखा, और खुद भी अन्याय और अत्याचार के खिलाफ अंतिम सांस तक खड़े रहे। उनका निधन और अंतिम क्षण सिख परंपरा और मानवता के लिए बेहद भावनात्मक और महत्वपूर्ण हैं।
आनंदपुर साहिब छोड़ने के बाद
आनंदपुर साहिब छोड़ने के बाद, 1705 में आनंदपुर साहिब की घेराबंदी और विश्वासघात के चलते Guru Gobind Singh Ji जी को अपने परिवार से अलग होना पड़ा। इस दौरान उनके दो छोटे बेटे, साहिबज़ादा जोरावर सिंह और साहिबज़ादा फतेह सिंह को सिरहिंद के नवाब ने दीवार में जिंदा चुनवा दिया, और उनकी मां माता गुजरी ने इस दुख में अपनी जान दे दी। इसी समय उनके दो बड़े बेटे, साहिबज़ादा अजीत सिंह और साहिबज़ादा जुझार सिंह ने चमकौर की लड़ाई में शहादत पाई।
इन सभी व्यक्तिगत दुखों के बावजूद, गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने कर्तव्य से कभी समझौता नहीं किया। उन्होंने साहस और आत्मबल के साथ सिखों को फिर से एकजुट किया।
दक्षिण भारत की ओर प्रस्थान
दक्षिण भारत की ओर बढ़ते हुए, मुगलों के साथ लंबे संघर्ष और पहाड़ी राजाओं के साथ युद्धों के बाद, गुरु जी ने महसूस किया कि सिख समुदाय को स्थायी शांति और सुरक्षा के लिए फिर से संगठित करना जरूरी है। उन्होंने नांदेड़ (महाराष्ट्र) की ओर प्रस्थान किया, जो उस समय दक्षिण भारत में एक महत्वपूर्ण स्थान था। यहाँ उन्होंने सिख धर्म के प्रचार और पुनर्गठन का कार्य शुरू किया।
जाफरनामा और औरंगज़ेब
नांदेड़ में रहते हुए, Guru Gobind Singh Ji ने औरंगज़ेब को “जाफरनामा” नामक एक प्रसिद्ध पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने औरंगज़ेब के विश्वासघात और धार्मिक अत्याचार की कड़ी आलोचना की। यह पत्र फारसी में लिखा गया था, जिसमें उन्होंने न्याय और सच्चाई का पक्ष रखा। कुछ समय बाद औरंगज़ेब की मृत्यु हो गई।
अंतिम हमला और षड्यंत्र
औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद, उसके उत्तराधिकारी बहादुर शाह ने गुरु जी से दोस्ती की और उन्हें सम्मानित किया। लेकिन इस बीच, वजीर खान (सिरहिंद का नवाब) जो गुरु जी का कट्टर विरोधी था, ने एक पठान को गुरु जी की हत्या के लिए भेजा। यह पठान नांदेड़ में गुरु जी के शिविर में शरणार्थी बनकर आया और धोखे से उन पर हमला कर दिया।
उसने Guru Gobind Singh Ji के पेट में खंजर घोंपा। घायल अवस्था में भी गुरु गोबिंद सिंह ने अपने रक्षक से कहा कि वह उस पठान को पकड़ ले, और खुद घायल होते हुए भी तलवार उठाकर उस पर हमला किया। गुरु जी ने अपनी चोट के बावजूद उस हमलावर को समाप्त कर दिया।
गुरु गोबिंद सिंह का निधन
हमले के बाद Guru Gobind Singh Ji का इलाज किया गया। उन्होंने कुछ दिन आराम किया और अपनी आत्मशक्ति से मृत्यु को कुछ समय तक टालने की कोशिश की। जब उन्हें लगा कि अब उनका शरीर ज्यादा साथ नहीं देगा, तो उन्होंने अपने अनुयायियों को बुलाया और गुरु परंपरा के अंत की घोषणा करते हुए कहा:
“अब सिखों का कोई जीवित गुरु नहीं होगा। ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ ही सिखों का अंतिम गुरु होगा।”
इस तरह उन्होंने गुरुता को व्यक्तिगत शरीर से हटाकर शब्द और ज्ञान में स्थापित कर दिया। 7 अक्टूबर 1708 को, गुरु गोबिंद सिंह जी ने नांदेड़ में अपने प्राण त्याग दिए।
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