आखिर chittorgarh ke raja kaun the और कितने राजाओं ने अपनी अपनी महत्वपूर्ण शासन प्रक्रिया में अपना अपना योगदान दिया. जाने चित्तौड़गढ़ के राजाओं के बारे में.
1. chittorgarh ke raja kaun the: कितने राजाओं ने किया यहां शासन

चित्तौड़गढ़ का किला सच में भारतीय इतिहास का एक बड़ा प्रतीक है, जो वीरता, बलिदान और हमारी सांस्कृतिक धरोहर का परिचायक है। यह किला ना सिर्फ अपनी अद्भुत वास्तुकला के लिए जाना जाता है, बल्कि इसकी दीवारों और महलों में राजपूतों की बहादुरी की कहानियाँ भी छिपी हैं।
यहाँ समय-समय पर कई राजाओं और राजवंशों का शासन रहा। उन्होंने इसे एक सैन्य गढ़ ही नहीं बल्कि अपने आत्मगौरव और संस्कृति की रक्षा के लिए एक जीवंत प्रतीक बना दिया।
चित्तौड़ का इतिहास सिर्फ गौरव का नहीं है, बल्कि संघर्ष और बलिदानों से भरा है। यहाँ रहने वाले राजाओं की सूची सिर्फ राजनीतिक शासकों की नहीं, बल्कि उन बहादुर योद्धाओं की है जिन्होंने अपनी भूमि और खुद की पहचान के लिए लड़ाई लड़ी।
बात करें अगर चित्तौड़ की, तो इसका ज़िक्र हमें मौर्य काल से मिलता है। इस समय यह मौर्यों के तहत आता था और शायद यहाँ किले की नींव भी रखी गई थी। कुछ कहानियों के मुताबिक, पहले इसे ‘चित्रकूट’ कहा जाता था और इसे मौर्य वंश के राजा चित्रांगद मौर्य ने बसाया था।

यह मौर्य वंश सम्राट अशोक से जुड़ा नहीं था, बल्कि यह स्वतंत्र शाखा थी, जिसने दक्षिण राजस्थान और मालवा में भी अपनी पकड़ बनाई। मौर्य वंश का शासन लगभग सातवीं शताब्दी तक चित्तौड़ पर रहा, लेकिन समय के साथ उनकी ताकत कम होती गई और गुहिल वंश ने यहाँ कदम रखा।
गुहिल वंश, जिसे बाद में मेवाड़ के राणाओं के नाम से जाना गया, ने चित्तौड़ को अपनी राजधानी बनाया और इसे राजपूतों की बहादुरी का गढ़ बना दिया। बप्पा रावल, जो गुहिल वंश के संस्थापक माने जाते हैं, ने इस किले पर अधिकार किया और इस तरह किला मेवाड़ के राणाओं का प्रमुख केंद्र बन गया।
बप्पा रावल के बाद उनके वंशज जैसे राणा खुमाण, राणा हम्मीर, राणा कुम्भा, राणा सांगा और राणा उदय सिंह ने किले पर राज किया। ये सभी महान शासक थे, जिन्होंने चित्तौड़ को न केवल राजनीतिक बल्कि सांस्कृतिक दृष्टि से भी समृद्ध किया। राणा हम्मीर ने दिल्ली सल्तनत के हमलों के बीच चित्तौड़ को फिर से स्वतंत्रता दिलाई।
राणा कुम्भा ने मेवाड़ में स्थापत्य कला को नई ऊँचाइयों पर पहुँचाया और उनके शासन में किला एक सांस्कृतिक केंद्र बना, जहाँ कला और साहित्य को बढ़ावा मिला। राणा सांगा ऐसे योद्धा थे जिन्होंने मेवाड़ को मुगलों और गुजरात सल्तनत के खिलाफ लड़ा और उत्तर भारत में राजपूतों की एकता का प्रतीक बने।
चित्तौड़गढ़ का इतिहास तीन जौहर की घटनाओं से भी जुड़ा है, जो दिखाते हैं कि यहाँ के शासक सिर्फ सत्ता पाने के लिए नहीं बल्कि अपने आत्मसम्मान और मातृभूमि की रक्षा के लिए भी लड़ाई लड़े।
पहला जौहर 1303 में हुआ जब अलाउद्दीन खिलजी ने रानी पद्मिनी की खूबसूरती को लेकर चित्तौड़ पर हमला किया और राणा रत्न सिंह वीरगति को पहुंचे। दूसरा जौहर 1535 में हुआ जब गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह ने हमला किया और राणा विक्रमादित्य सिंह के समय किले की रक्षा करते हुए कई वीरों ने अपनी जान दे दी।
अंतिम जौहर 1568 में हुआ जब बादशाह अकबर ने किले पर आक्रमण किया। राणा उदय सिंह उस समय किले से गायब हो गए थे, लेकिन उनके योद्धा जयमल और फत्ता ने किले की आखिरी क्षण तक रक्षा की। जब हार ज़रूरी हो गई, तो फिर से महिलाओं ने जौहर किया और योद्धाओं ने शाका।

राणा रतन सिंह का नाम भी इस किले के इतिहास में महत्वपूर्ण है, क्योंकि उनके समय अलाउद्दीन खिलजी ने हमला किया। रतन सिंह अपनी वीरता और चतुराई के लिए जाने जाते थे, लेकिन दुर्भाग्य से उन्हें एक ऐसे आक्रमणकारियों का सामना करना पड़ा, जो हमेशा जीत के लिए धोखा और लालच का सहारा लेते थे। रानी पद्मिनी और अन्य राजपूत महिलाओं का अग्नि में प्रवेश केवल आत्महत्या नहीं बल्कि आत्मबलिदान था, जो हमेशा याद किया जाएगा।
राणा विक्रमादित्य के शासन के दौरान किला मुश्किल समय से गुजरा। वह युवा और अनुभवहीन थे, पर उनके अधीनस्थ और महिलाएँ, जैसे रानी कर्मवती ने किले की रक्षा में अद्भुत साहस दिखाया। जब सुल्तान बहादुर शाह ने हमला किया, तो जयमल और फत्ता ने अपने प्राण देकर किले की रक्षा की।
अंत में, राणा उदय सिंह का शासन भी महत्वपूर्ण था। जब अकबर ने किले पर हमला किया, तो उन्होंने जंगल में जाकर उदयपुर की नींव रखी, ताकि राज्य की निरंतरता बनी रहे। चित्तौड़ भले ही उनके हाथ से चला गया, लेकिन मेवाड़ का गौरव जीवित रहा। महाराणा प्रताप जैसे योद्धा ने हल्दीघाटी युद्ध में मुगलों को चुनौती दी और कभी भी हार मानने के लिए तैयार नहीं हुए।
अब समय के साथ, चित्तौड़ का सामरिक महत्व कम होता गया क्योंकि राजधानी उदयपुर स्थानांतरित की गई। लेकिन यह किला आज भी उस गौरवपूर्ण इतिहास का गवाह है, जब राजपूत शासक सत्ता नहीं, बल्कि अपने आत्मसम्मान और मातृभूमि के लिए राज करते थे। चित्तौड़ के राजा केवल राजनैतिक शासक नहीं थे; वे हमारी संस्कृति के रक्षक और स्वतंत्रता के लिए लड़ने वाले योद्धा थे। उनका हर चरण एक ऐसी कथा है, जिसमें त्याग, बलिदान, शौर्य और प्रेम की अनूठी मिसालें मिलती हैं।
संक्षेप में, चित्तौड़गढ़ का किला मौर्य वंश से लेकर गुहिल वंश और मेवाड़ के राणा शासकों तक एक लंबी विरासत का हिस्सा है। मुस्लिम आक्रमणकारियों ने इसे हथियाने की कई बार कोशिश की, लेकिन इस किले की आत्मा हमेशा राजपूतों की रही। यह किला सिर्फ एक इमारत नहीं है, बल्कि यह उन राजाओं की गाथा है जो इसके प्राचीरों को अपने रक्त से सींचते रहे और इतिहास में अपना नाम अमर कर दिया।
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