alauddin khilji जो हमेशा अपने जीवनकाल में दिल्ली सल्तनत का विस्तार करने में लगा रहा. जिसने अनेकों युद्ध में विजय प्राप्ति की. जानिए अलाउद्दीन खिलजी के बारे में.
1. अलाउद्दीन खिलजी का परिचय | alauddin khilji

alauddin khilji का नाम हमें भारतीय इतिहास में एक ऐसे शासक के रूप में याद रहता है, जिसने अपने समय में न केवल युद्ध के मैदानों में विजयी हुआ, बल्कि दिल्ली सल्तनत को भी एक मजबूत और संगठित शासन प्रणाली में ढाला। उसकी शुरूआत 1266 ईस्वी के आसपास हुई थी, जब वह एक तुर्क परिवार में जन्मा था और वह जलालुद्दी खिलजी का भतीजा था।
जलालुद्दीन ने गुलाम वंश के किनारे खिलजी वंश की नींव रखी थी, और alauddin khilji ने उसके अधीन कई महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया, जैसे कि ‘आर्म्स कमांडर’ और ‘कारागार निरीक्षक’। लेकिन आलम ये था कि अलाउद्दीन के मन में एक बड़ा सपना था, और उसने अपने चाचा की हत्या करके 1296 ईस्वी में खुद को दिल्ली का सुलतान बना लिया।
उसके बाद, जब alauddin khilji ने शासन संभाला, तो उसने सबसे पहले स्थिरता का ध्यान रखा। उसने विद्रोहों को खत्म करने के लिए कड़े कदम उठाए। यहाँ तक कि उसने उच्च कुलीनों की शक्तियों को भी सीमित कर दिया, ताकि किसी भी प्रकार का राजनीतिक खतरा न खड़ा हो सके।
उसने इस बात को सुनिश्चित किया कि बिना उसकी अनुमति के कोई भी शादी या बड़ा आयोजन न हो सके, जिससे दरबार के अंदर होने वाले षड़यंत्रों को रोका जा सके। उसकी गुप्तचर प्रणाली इतनी सक्षम थी कि उसे दरबार की हर गतिविधि की जानकारी तुरंत मिल जाती थी, जिससे वह हमेशा एक कदम आगे रहता था।
सैन्य के मामले में भी alauddin khilji ने शानदार काम किया। उसका लक्ष्य था एक मजबूत सेना बनाना, जो न केवल उत्तरी भारत की सीमाओं की सुरक्षा करे, बल्कि दक्षिण भारत के राज्यों में भी अपना दबदबा बनाए। उसने सैनिकों को वेतन देने का एक नया तरीका अपनाया।
पहले सैनिकों को बहुत अधिक परेशानी उठानी पड़ती थी, लेकिन उसने सुनिश्चित किया कि उन पर कभी किसी प्रकार का खर्च न आए। इसके लिए उसने बाजार की व्यवस्था को सही किया और जरूरी वस्तुओं की कीमतें निर्धारित कीं, जिससे दाम बढ़ने से रोकने में मदद मिली।
इसने उसकी सेना के लिए जीवन आवश्यक सामग्री का सहज प्रावधान किया, और इसी कारण उसकी सेना ने काफी हद तक स्थिरता और विजय का अनुभव किया।

alauddin khilji का सबसे मास्टर स्ट्रोक था दक्षिण भारत की ओर उसके सैन्य अभियान। उसने अपने सेनापति मलिक काफूर को दक्षिण के शक्तिशाली राज्यों पर हमले करने के लिए भेजा। मलिक काफूर ने कई महत्वपूर्ण राज्यों जैसे देवगिरि, वारंगल और मदुरै पर विजय प्राप्त की।
वहाँ से लूटे गए धन ने दिल्ली को केवल आर्थिक रूप से सुदृढ़ बनाने में मदद ही नहीं की, बल्कि उसे एक राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण केंद्र भी बना दिया। अलाउद्दीन ने दक्षिण में सिक्के चलवाए, जिससे वहाँ के शासकों ने उसकी अधीनता स्वीकार की। भले ही उसने वहां पर सीधे शासन नहीं किया, लेकिन दिल्ली का प्रभाव अब वहाँ भी फैला था।
एक और बात मानने के लायक यह थी कि alauddin khilji एकमात्र ऐसा मुस्लिम शासक था जिसने मंगोलों के आक्रमणों का सामना किया और उन्हें हराया। मंगोलों ने उसके शासनकाल में कई बार आक्रमण किया, लेकिन हर बार उसकी सेना ने उन्हें नकारा किया।
इससे पहले के शासक मंगोलों के हाथों हार चुके थे, लेकिन अलाउद्दीन ने अपने समय में एक ठोस सुरक्षा ढांचा खड़ा किया और किले बनवाए, जिससे अपनी सीमाओं को सुरक्षित रखा।
alauddin khilji का प्रशासन भी काफी खास था। उसने कई सामाजिक नियंत्रण के उपाय किए, जैसे शराब और जुए पर पूरी तरह से रोक लगाया। उसने भूमि कर की दरों को फिर से तय किया और कर संग्रह की प्रक्रिया को स्थिर बनाया। गाँवों से सीधे कर वसूली शुरू की गई, जिसका उद्देश्य स्थानीय जमींदारों की शक्ति को कम करना था। इसने राजस्व को बढ़ाने में मदद की, लेकिन कुछ स्थानों पर किसानों पर दबाव भी बढ़ा दिया।
alauddin khilji का व्यक्तित्व काफी जटिल था। वह केवल एक सैन्य दिग्गज नहीं था, बल्कि एक कुशल और राजनीतिक रणनीतिकार भी था। उसने खुद को स्वतंत्रता से शासक माना, जो धर्म के दायरे से बाहर रहकर अपने राज्य का संचालन करना चाहता था। यही कारण था कि उसने धार्मिक मामलों में उलेमाओं को दूर रखा। उसने यह दिखाया कि उसके शासन का संचालन नीतियों और व्यवहारिकता पर आधारित है।
हालांकि, alauddin khilji के शासनकाल में कला और संस्कृति का उतना विकास नहीं हुआ, क्योंकि वह विशेष रूप से धार्मिक संगीत या साहित्य में रुचि नहीं रखता था। लेकिन कुछ स्थापत्य कला के नमूने, जैसे कुतुब मीनार परिसर में अलाई दरवाज़ा, उस समय के अनूठे उदाहरण बने। उसने सीरी नामक नगर की स्थापना की, जो उसके शासन का नया केंद्र बना।
उसका निजी जीवन विवादों से भरा रहा। सत्ता पाने का उसका रास्ता हत्या और धोखे से शुरू हुआ और उसने अपने विरोधियों को खत्म करने के लिए कठोर नीतियों का सहारा लिया। कई इतिहासकार मानते हैं कि उसने अपने विरोधियों को यातनाएं दीं। इसके बावजूद, अलाउद्दीन ने एक शक्तिशाली राज्य की नींव रखी, जो अपनी गूंज आने वाले कई दशकों तक सुनाई दी।
alauddin khilji का शासनकाल ऐसे समय में आया जब भारत को बाहरी खतरों से सुरक्षा की जरूरत थी। उसने ना केवल सत्ता का एक केंद्र रखा, बल्कि एक मजबूत प्रशासनिक ढांचे की नींव भी डाली। उसकी कठोर नीतियों के पीछे उसके कार्यों से जो स्थिरता मिली, वही भारत के राजनीतिक और प्रशासनिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण बदलाव लाने वाली साबित हुई।
ऐसे में अलाउद्दीन खिलजी केवल एक क्रूर विजेता नहीं था, बल्कि एक सरल और दूरदर्शी शासक था, जिसने भारत के मध्यकालीन इतिहास को एक नया मोड़ दिया।
2. अलाउद्दीन खिलजी की युद्धनीति
दिल्ली सल्तनत के इतिहास में alauddin khilji (1296–1316 ई.) एक ऐसे सुल्तान के रूप में जाने जाते हैं, जिन्होंने अपनी सैन्य सोच, युद्ध नीति, रणनीति और प्रशासनिक कौशल से भारतीय उपमहाद्वीप का राजनीतिक संतुलन पूरी तरह बदल दिया। उन्होंने अपनी शक्ति को केवल दिल्ली तक सीमित नहीं रखा, बल्कि इसे उत्तर-पश्चिमी सीमाओं से लेकर दक्षिण भारत तक फैलाया। यह सब उनकी अनोखी युद्ध नीति और सैन्य संरचना के कारण संभव हुआ, जो उस समय के लिए काफी उन्नत और परिवर्तनकारी थी।
2.1 युद्ध नीति की बुनियाद: शक्ति, नियंत्रण और अनुशासन
अलाउद्दीन की युद्ध नीति सिर्फ तलवारों और सेनाओं पर निर्भर नहीं थी; यह मनोवैज्ञानिक नियंत्रण, रणनीतिक आक्रमण, खुफिया तंत्र और संसाधनों के सटीक उपयोग पर आधारित थी। उनकी नीति तीन मुख्य स्तंभों पर टिकी थी—युद्ध की पूर्व तैयारी, रणभूमि की रणनीति, और युद्ध के बाद की व्यवस्था। इन तीनों पहलुओं में उनकी पकड़ बहुत मजबूत थी।
alauddin khilji का लक्ष्य सिर्फ युद्ध जीतना नहीं था, बल्कि विजय के बाद क्षेत्र को स्थायी रूप से अपने प्रशासन के अधीन रखना भी था। इसलिए, वह युद्ध में जितना निपुण था, उतना ही कुशलता से वह युद्ध के बाद की स्थिति को भी संभालता था।
2.2 स्थायी और संगठित सेना की स्थापना
alauddin khilji ने सबसे पहले अपनी युद्ध नीति के तहत एक स्थायी और नियमित सेना बनाई। पहले के सुल्तानों की सेनाएं मुख्य रूप से आवश्यकता के अनुसार बनाई जाती थीं, लेकिन अलाउद्दीन ने एक पूर्णकालिक सैन्य बल का गठन किया। उसकी सेना में लाखों सैनिक थे, जो नियमित वेतन पर काम करते थे।
उन्होंने सेनापतियों को व्यक्तिगत स्तर पर सैनिकों की भर्ती और प्रशिक्षण का अधिकार नहीं दिया, जिससे निजामों की शक्ति को सीमित किया जा सके। इस तरह, सेना सुल्तान के नियंत्रण में रही और व्यक्तिगत निष्ठाओं की जगह सामूहिक अनुशासन आया।
2.3 घुड़सवार सेना और घोड़ों की पहचान प्रणाली
alauddin khilji की सेना का मुख्य आधार उसकी घुड़सवार सेना थी। मंगोलों के खिलाफ लड़ाई में उसने इस सेना को और भी मजबूत किया। उसने हर घोड़े पर दाग लगाने की व्यवस्था की और सैनिकों की पहचान के लिए हुलिया दर्ज किया जाता था। इससे दो मुख्य फायदे होते थे:
सैनिकों की फर्जी उपस्थिति और वेतन घोटाले रोके जा सकते थे।
युद्ध के समय सटीक और अनुशासित बल का संचालन संभव हो पाता था।
यह प्रणाली उस समय के लिए काफी आधुनिक और प्रभावी थी।
2.4 खुफिया तंत्र और रणनीतिक जानकारी
alauddin khilji की युद्ध नीति में जासूसी और खुफिया तंत्र का एक महत्वपूर्ण स्थान था। उसने दिल्ली, प्रांतीय शहरों और सीमावर्ती क्षेत्रों में गुप्तचर नियुक्त किए। ये जासूस न केवल दुश्मन की गतिविधियों पर नजर रखते थे, बल्कि सेना के भीतर अनुशासन बनाए रखने में भी मदद करते थे।
युद्ध से पहले वह अपने दुश्मन की सेना की संख्या, भूगोल, रसद व्यवस्था और सामाजिक स्थिति की गहरी जानकारी हासिल करता था। इस तरह की तैयारियों के चलते अलाउद्दीन कई बार संख्या में कम होते हुए भी बड़ी जीत हासिल करने में सफल रहा।
2.5 सशस्त्र अभियानों की योजना और विभाजित मोर्चा प्रणाली
alauddin khilji की युद्ध नीति की एक खास बात यह थी कि वह सीधे टकराव से ज्यादा “रणनीतिक विभाजन” पर ध्यान देता था। वह दुश्मन को कई मोर्चों में बांटकर उसकी आपूर्ति और संचार व्यवस्था को तोड़ता था। जैसे, जब उसने रणथंभौर, चित्तौड़, देवगिरि और वारंगल पर चढ़ाई की, तो उसने पहले उन क्षेत्रों की सीमाओं पर कब्जा किया, चारों ओर से घेराबंदी की और फिर धीरे-धीरे भीतर घुसकर दुर्गों को जीत लिया।
वह एक-एक करके किले, प्रशासनिक केंद्र और व्यापारिक मार्गों पर कब्जा करता था ताकि दुश्मन की मदद रुक जाए। इसे हम आज की “war of attrition” या “exhaustive siege strategy” कह सकते हैं।
2.6 मंगोल आक्रमणों से निपटने की नीति
मंगोलों ने खिलजी काल में बार-बार भारत पर आक्रमण किया। 1299, 1303, 1305 और 1306 जैसे वर्षों में मंगोलों की सेनाएं दिल्ली तक पहुंचीं। alauddin khilji ने हर बार न केवल उन्हें रोका, बल्कि निर्णायक रूप से पराजित भी किया। इसके लिए उसने कई युद्धनीतियाँ अपनाईं:
किलों का निर्माण: दिल्ली के पास सिरी किले का निर्माण किया, जो मंगोल आक्रमण के समय रक्षा का सबसे बड़ा साधन बना।
प्रतिक्रिया की गति: वह सैनिकों को हर समय तैयार रखता था और तुरंत प्रतिक्रिया देने की प्रणाली बनाई थी।
आक्रामक प्रतिशोध: मंगोल बंदियों को मृत्युदंड देकर उसने उनकी मनोबल को तोड़ने का प्रयास किया।
इन युद्धों में उसकी नीति केवल रक्षा नहीं, बल्कि मनोवैज्ञानिक दबाव और सामरिक आक्रामकता की भी थी।
2.7 भारत में युद्ध नीति: “लूट और अधीनता” का मॉडल
दक्षिण भारत का भूगोल, सांस्कृतिक अंतर और सैन्य क्षमता उत्तर भारत से अलग थी। जब alauddin khilji की सेना दक्षिण में देवगिरि (यादव), वारंगल (काकतीय), द्वारसमुद्र (होयसला) और मदुरै (पांड्य) जैसे क्षेत्रों में पहुंची, तो उसने वहां लूट और अधीनता की नीति अपनाई।
वह सीधे शासन नहीं करता था, बल्कि वहां के शासकों को युद्ध में हराकर, उनसे वार्षिक कर (tribute) वसूलता था। यह नीति उसे दक्षिण के क्षेत्रों को नियंत्रित करने में मदद करती थी बिना प्रशासनिक बोझ बढ़ाए।
2.8 आर्थिक युद्ध नीति और सेना के पोषण की व्यवस्था
alauddin khilji की युद्ध नीति केवल रणभूमि तक सीमित नहीं थी। उसने सैन्य-आर्थिक सुधार किए ताकि लंबी लड़ाइयों में उसकी सेना को खाद्यान्न और संसाधनों की कमी न हो।
मंडी व्यवस्था: उसने दिल्ली और अन्य बड़े नगरों में कीमतें तय कर दीं, जिससे सेना को कम दामों में भोजन और अन्य सामग्री मिल सके।
राजस्व सुधार: सीधे किसान से कर वसूली की व्यवस्था की ताकि सेना को लगातार वित्तीय सहायता मिलती रहे।
भंडारण नीति: युद्ध के समय सेना को भोजन उपलब्ध कराने के लिए उसने बड़े पैमाने पर सरकारी भंडारण घर बनवाए।
3. अलाउद्दीन खिलजी की वीरता
अलाउद्दीन खिलजी की वीरता: एक गहराईपूर्ण ऐतिहासिक विवेचना
मध्यकालीन भारत के इतिहास में जब भी हम महान योद्धाओं और बहादुर सुल्तानों की बात करते हैं, alauddin khilji का नाम जरूर आता है। उसे दिल्ली सल्तनत के सबसे शक्तिशाली शासकों में से एक माना जाता है, और उसकी वीरता, सैन्य कौशल, और प्रशासनिक क्षमता के लिए भी उसे जाना जाता है। अलाउद्दीन ने अपने शासनकाल में अपने दुश्मनों को हराने और बाहरी आक्रमणों से देश की रक्षा करने के जो कारनामे किए, वे उसकी वीरता की एक अमिट छवि बनाते हैं।
3.1 प्रारंभिक जीवन और वीरता की नींव | alauddin khilji
alauddin khilji का जन्म 1266 ईस्वी के आसपास हुआ था, और उसका असली नाम अली गुरशास्प था। वह खिलजी वंश से था, जो कि अफगान मूल का एक तुर्किक परिवार था। अलाउद्दीन ने बचपन से ही युद्ध और प्रशासन में रुचि दिखाई। उसके चाचा जलालुद्दीन खिलजी, जो पहले खिलजी सुल्तान बने, के साथ उसने एक सेनापति के रूप में काम किया और अपनी क्षमता को साबित किया।
उसकी वीरता की शुरुआत तब हुई जब उसने देवगिरि (जो आजकल महाराष्ट्र में है) पर एक साहसी हमला किया। बहुत कम सैनिकों के साथ, उसने यादवों की राजधानी पर धावा बोला और भारी संपत्ति के साथ लौट आया। यही वह पल था जिसने उसे एक साहसी योद्धा के रूप में स्थापित किया।
3.2 सत्ता पर कब्जा और वीरता का विस्तार
1296 में alauddin khilji ने अपने चाचा जलालुद्दीन की हत्या कर दिल्ली की गद्दी पर कब्जा कर लिया। यह एक बड़ा और साहसिक कदम था, क्योंकि यह एक लोकप्रिय शासक के खिलाफ विद्रोह था। सत्ता में आने के बाद, अलाउद्दीन ने एक शक्तिशाली साम्राज्य स्थापित किया, जिसमें उत्तर भारत का बड़ा हिस्सा शामिल था।
उसने बाहरी आक्रमणों से दिल्ली सल्तनत की रक्षा करते हुए अपनी वीरता और दूरदर्शिता को साबित किया। जब मंगोल आक्रमण कर रहे थे, तब अधिकांश सुल्तान डर जाते थे, लेकिन अलाउद्दीन ने मंगोलों के खिलाफ कई बार युद्ध किए और उन्हें हराया।
3.3 मंगोलों के विरुद्ध अलौकिक वीरता
alauddin khilji की वीरता का सबसे बड़ा सबूत मंगोल आक्रमणों के खिलाफ उसके सैन्य अभियानों में देखा जा सकता है। मंगोलों ने भारत पर कई बार आक्रमण किया, और हर बार उनकी आक्रमण की योजना भयानक होती थी। लेकिन अलाउद्दीन ने इन आक्रमणों को न केवल विफल किया, बल्कि मंगोलों को दिल्ली की सीमाओं से बाहर धकेल दिया।
1299 में, जब मंगोल सेनापति कुतलुघ ख्वा और तारघाई के नेतृत्व में मंगोलों ने हमला किया, तो अलाउद्दीन ने अपनी सेना के साथ मैदान में डटकर मुकाबला किया और उन्हें पराजित किया। यह उसकी असाधारण सैन्य रणनीति और निर्भीकता का प्रमाण था। 1306 में, जब मंगोलों की एक विशाल सेना भारत में घुसी, alauddin khilji की सेना ने उन्हें कड़ी टक्कर दी और न केवल उन्हें हराया, बल्कि कई मंगोलों को बंदी बना लिया।
इस कदम ने मंगोलों को यह संदेश दिया कि भारत एक आसान लक्ष्य नहीं है, और यह साबित किया कि alauddin khilji एक ऐसा वीर सुल्तान था जो अपनी राजधानी और प्रजा की रक्षा के लिए किसी भी हद तक जा सकता था।
3.4 दक्षिण भारत की विजय और सामरिक वीरता
alauddin khilji की वीरता सिर्फ उत्तर भारत तक सीमित नहीं रही। उसने दक्षिण भारत में भी कई अभियानों के जरिए साहस और विजय की नई कहानियाँ लिखीं। 1308 से 1311 के बीच, उसने मलिक काफूर के नेतृत्व में दक्षिण भारत की ओर कई अभियानों का संचालन किया। काकतीय राजवंश (वारंगल), होयसलों (द्वारसमुद्र), यादवों (देवगिरि) और पांड्य राजाओं (मदुरै) के खिलाफ उसे शानदार सफलता मिली।
अलाउद्दीन की युद्ध रणनीति हमेशा सटीक और साहसी होती थी। उसने कभी भी दुश्मन की संख्या या ताकत से डर नहीं माना। वह तेज और निर्णायक हमलों में विश्वास रखता था और अपनी सेना को बार-बार प्रेरित करता था। खास बात यह थी कि उसने केवल तलवार की ताकत से नहीं, बल्कि मनोवैज्ञानिक रणनीतियों और रसद आपूर्ति की दक्षता का भी उपयोग किया।
3.5 चित्तौड़ पर आक्रमण: वीरता और महत्वाकांक्षा
1303 में, alauddin khilji ने चित्तौड़ के किले पर चढ़ाई की। यह युद्ध उसकी महत्वाकांक्षा, साहस और रणकौशल का एक और उदाहरण था। कहा जाता है कि उसने रानी पद्मिनी की सुंदरता के बारे में सुनकर चित्तौड़ पर आक्रमण किया, लेकिन ऐतिहासिक दृष्टि से यह युद्ध सामरिक दृष्टिकोण से अधिक महत्वपूर्ण था।
chittorgarh kila उस समय राजपूतों के कब्जे में था, और वहां का राजा रावल रतन सिंह था। राजपूत योद्धा वीरता और आत्मबलिदान के लिए जाने जाते थे। इसके बावजूद, अलाउद्दीन ने तीन महीने तक किले की घेराबंदी की और अंततः विजय प्राप्त की। यह उसकी असाधारण सैन्य नेतृत्व क्षमता और दृढ़ निश्चय का प्रमाण था। हालांकि इस युद्ध के बाद राजपूत स्त्रियों के जौहर और पुरुषों के अंतिम युद्ध ने उसकी विजय को आंशिक बना दिया, लेकिन यह भी सच है कि उसने भारत के सबसे सशक्त दुर्गों में से एक को जीत लिया।
3.6 व्यक्तिगत साहस और कठोर निर्णय
alauddin khilji केवल युद्ध के मैदान में ही वीर नहीं था, बल्कि अपने शासन में भी उसने साहसिक निर्णय लेने की क्षमता दिखाई। उसने सामंती व्यवस्था को तोड़कर भूमि कर प्रणाली में सुधार किया, और सैनिकों को नकद वेतन देने की शुरुआत की। इससे उसके साम्राज्य की युद्ध क्षमताएं अधिक संगठित और प्रभावी बनीं।
उसने दिल्ली में एक मजबूत जासूसी तंत्र स्थापित किया ताकि शत्रुओं और षड्यंत्रों की जानकारी समय पर मिल सके।
4. अलाउद्दीन खिलजी का इतिहास

alauddin khilji का इतिहास भारत के मध्यकालीन दौर का एक खास हिस्सा है। वो केवल अपनी प्रशासनिक कुशलता और सैन्य जीतों के लिए ही नहीं, बल्कि अपने जटिल व्यक्तित्व और राजनीतिक कूटनीति के लिए भी मशहूर था।
उसका असली नाम अली गुरशास्प था, और वो खिलजी वंश से ताल्लुक रखता था, जो अफगानिस्तान के खिलज प्रांत से भारत आया था। उसका जन्म करीब 1266 में हुआ और वो जलालुद्दीन फिरोज खिलजी का भतीजा और दामाद था। जब जलालुद्दीन ने 1290 में दिल्ली की सिंहासन पर बैठकर गुलाम वंश का अंत किया, अलाउद्दीन ने उसके विश्वासपात्र के रूप में कई प्रशासनिक जिम्मेदारियां संभाली।
1296 में जब जलालुद्दीन ने alauddin khilji को दक्षिण भारत की ओर भेजा, तो उसने वहां से धन लूटकर वापस आकर जलालुद्दीन की हत्या कर दी और खुद को दिल्ली का सुल्तान बना लिया। उसने लोगों को अपने पाले में लाने के लिए आर्थिक उपहार और पद बांटकर अपनी सत्ता को मजबूत किया। अलाउद्दीन ने अपना शासन मजबूत करने के लिए कई सख्त कदम उठाए, जिसमें विद्रोहियों को सजा देने और अमीरों के अधिकारों पर लगाम लगाने से लेकर जासूसों का तंत्र स्थापित करना शामिल था।
उसने सेना की संख्या बढ़ाई और उन्हें नियमित वेतन दिया ताकि वे राज्य के प्रति वफादार रहें। खाद्य पदार्थों की कीमतों को नियंत्रित करने के लिए बाजारों की व्यवस्था चाक-चौबंद की। मंगोल आक्रमणों के खिलाफ भी उसने अपनी सेना के जरिए सफलतापूर्वक रक्षा की।
आर्थिक रूप से, अलाउद्दीन ने दक्षिण भारत में अनेक सफल सैन्य अभियानों का संचालन किया। उसने अपने सेनापति मलिक काफूर को भेजा, जिसने कई राज्यों को जीतकर वहां से धन और रत्न लाए। इन अभियानों ने दिल्ली सल्तनत की आर्थिक स्थिति को मजबूत किया।
प्रशासनिक दृष्टिकोण से उसकी नीतियां अपने समय की सबसे संगठित थीं। उसने भूमि कर प्रणाली को सुधारकर राज्य को ज्यादा राजस्व दिलाया। धार्मिक मामलों में अलाउद्दीन ने धार्मिक हस्तक्षेप से दूर रहने की कोशिश की और प्रशासनिक फैसले तर्क पर आधारित रखने की चाह रखी।
alauddin khilji का जीवन जितना सफल था, अलाउद्दीन खिलजी की मृत्यु भी उतना ही दुखद था। उसके बाद उसके उत्तराधिकारियों को सत्ता में लाना आसान नहीं हुआ, जिससे खिलजी वंश का पतन शुरू हो गया। अलाउद्दीन की मृत्यु के बाद तुगलक वंश का उदय हुआ, लेकिन उसने जो प्रशासनिक और सैन्य सूत्र रखे, वे भारतीय इतिहास में एक स्थायी छाप छोड़ गए।
उसकी कठोरता और कभी-कभी नीतियों की कठोरता की आलोचना की जाती है, फिर भी उसके कुशल नेतृत्व और संगठनात्मक क्षमता को नकारा नहीं जा सकता।
5. अलाउद्दीन खिलजी की मृत्यु और उसके अंतिम पल
5.1 सत्ता के शिखर पर एक अकेला सम्राट
alauddin khilji ने अपने शासनकाल (1296–1316 ई.) में मंगोलों को हराया, उत्तर भारत को एकजुट किया, दक्षिण भारत पर हमला किया और कई उपराज्य बनाये। उसने एक मजबूत प्रशासनिक ढांचा भी तैयार किया। लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, वह संदेह और तनाव में रहने लगा, और उसकी सेहत भी बिगड़ने लगी। उसे लगातार षड्यंत्रों, विद्रोहों, मंगोल हमलों और दरबारी चालाकियों का सामना करना पड़ा।
अपने अंतिम वर्षों में, उसने बहुत से करीबी सहयोगियों को हटा दिया, कुछ को मौत की सजा दी और अपने चारों ओर एक तरह की बंद व्यवस्था बना ली, जहां सिर्फ कुछ चुनिंदा लोग ही आ सकते थे। इनमें सबसे महत्वपूर्ण था उसका सेनापति और अंगरक्षक प्रमुख – मलिक काफूर।
5.2 बीमारी और गिरता स्वास्थ्य
इतिहासकारों के अनुसार, alauddin khilji के जीवन के आखिरी 2-3 वर्षों में उसकी सेहत तेजी से गिरने लगी। इसके पीछे कई कारण बताए जाते हैं। कुछ लोग मानते हैं कि उसे डायबिटीज या यूरिन से जुड़ी बीमारी थी, जबकि कुछ का कहना है कि मानसिक तनाव और अवसाद ने उसकी सेहत को कमजोर कर दिया। कुछ लोग यह भी मानते हैं कि शराब और भोग विलास में लिप्त होने के कारण वह कमजोर हो गया था।
वह धीरे-धीरे दरबार की गतिविधियों से दूर होने लगा और अंत में, उसके शासन के अंतिम समय में सारे निर्णय मलिक काफूर ही लेने लगे।
5.3 मलिक काफूर का उदय और षड्यंत्र
मलिक काफूर एक हिजड़ा था, जिसे alauddin khilji ने गुजरात की विजय के दौरान बंदी बनाया था। उसकी चतुराई और समर्पण ने उसे अलाउद्दीन का करीबी बना दिया। धीरे-धीरे, वह दरबार के सबसे प्रभावशाली व्यक्तियों में से एक बन गया। उसका प्रभाव इतना बढ़ गया कि वह सेनापति, प्रधान सलाहकार और अंत में ‘नायब-ए-सल्तनत’ बन गया।
अलाउद्दीन के अंतिम वर्षों में, वह राजा के सभी निर्णयों को संचालित करने लगा। जब सुल्तान की तबीयत बिगड़ने लगी, तो उसने पूरे प्रशासन पर नियंत्रण जमा लिया। कहा जाता है कि काफूर ने अलाउद्दीन की पत्नियों, बेटों और मंत्रियों को भी सुलतान से अलग कर दिया, जिससे राजा और भी अकेला महसूस करने लगा।
5.4 सुल्तान का अकेलापन और मानसिक अस्थिरता
alauddin khilji के शासन के अंतिम वर्ष में, वह पूरी तरह से मलिक काफूर के नियंत्रण में आ गया था। वह किसी से नहीं मिलता था, मंत्रियों और उलेमाओं को नजरअंदाज करने लगा। उसके अपने बेटे – खिज्र खां और शहजादा शहाबुद्दीन – उससे मिलने नहीं दिए जाते थे। कहा जाता है कि काफूर ने अपने षड्यंत्र को सफल करने के लिए सुलतान को धीरे-धीरे “राजनीतिक रूप से निष्क्रिय” कर दिया।
alauddin khilji बिस्तर पर पड़ा था, मानसिक रूप से असमर्थ और अपने प्रियजनों से पूरी तरह कटा हुआ। वह केवल वही सुनता था जो काफूर उसे बताता था। यह वह समय था जब सबसे शक्तिशाली सुलतान भी सबसे कमजोर और पराजित शासक बन चुका था।
5.5 अंतिम बीमारी और मृत्यु
सन् 1316 ई. की शुरुआत में, alauddin khilji की हालत बिगड़ गई। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि उसे किडनी फेलियर या मल्टी ऑर्गन फेलियर हुआ था, जबकि कुछ कहते हैं कि वह किसी धीमे जहर का शिकार बना, जिसे मलिक काफूर ने जानबूझकर दिया।
कुछ फारसी इतिहासकारों जैसे ज़ियाउद्दीन बरनी और इसामी ने लिखा है कि अलाउद्दीन की मृत्यु 15 जनवरी 1316 को हुई, लेकिन उससे कुछ दिन पहले ही वह बेहोश और निर्णय लेने में असमर्थ हो चुका था। उसके अंतिम दिनों की कोई ठोस जानकारी नहीं मिलती, लेकिन इतना स्पष्ट है कि:
वह अत्यधिक दर्द और अकेलेपन में था,
उसके अपने बच्चे और पत्नियाँ उससे मिलने के लिए तड़पती रहीं,
वह अंतिम समय में भी मलिक काफूर की चालों का शिकार बना रहा।
5.6 मृत्यु के बाद का षड्यंत्र
alauddin khilji की मृत्यु के तुरंत बाद, मलिक काफूर ने सत्ता पर कब्जा कर लिया। उसने अलाउद्दीन के बड़े बेटे खिज्र खां को बंदी बना लिया और बाद में हत्या कर दी। अन्य प्रतिद्वंद्वी राजकुमारों को या तो जेल में डाल दिया गया या अंधा कर दिया गया। उसने अलाउद्दीन के सबसे छोटे बेटे शहाबुद्दीन को ‘नाममात्र सुल्तान’ घोषित कर खुद संरक्षक और असली शासक बन बैठा।
लेकिन काफूर का शासन ज्यादा लंबे समय तक नहीं चला। सुलतान की मृत्यु के सिर्फ 35 दिनों के भीतर, तुगलक वंश के संस्थापक बनने वाले गयासुद्दीन तुगलक के सहयोगियों ने उसे मार डाला और सुलतान की विधवा – मलिका-ए-जहां – ने जलालुद्दीन को सुलतान बनवाया।
5.7 सुलतान की कब्र और अंतिम संस्कार
alauddin khilji की मृत्यु के बाद, उसका शव दिल्ली में सिरी किले के पास स्थित एक परिसर में दफनाया गया। यहीं पर अलाउद्दीन ने अपनी सेना के लिए गढ़ बनाया था। उसकी कब्र आज भी ‘अलाउद्दीन का मकबरा’ के नाम से कुतुब मीनार परिसर के पास है। यह मकबरा वास्तुशिल्प के नजरिए से ज्यादा सजावटी नहीं है, और कुछ इतिहासकार मानते हैं कि उसकी मृत्यु के बाद उसके प्रति उपेक्षा के कारण ही उसकी कब्र पर कोई भव्य इमारत नहीं बनाई गई।
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