जब महाराणा कुंभा ने कुंभलगढ़ दुर्ग की शुरुआत की। तब उन्हें यहां दैवीय शक्ति के संकेत प्राप्त हुए।
जिस दैवीय शक्ति के चलते। कुंभलगढ़ दुर्ग के निर्माण कार्य में बाधाएं उत्पन्न होने लगी।
तभी महाराणा कुम्भा को पता चला। की यहीं की निकट पहाड़ी पर। भैरव मुनि तपस्वी है। जो इस समस्या को हल कर सकते है।
तभी भैरव मुनि बोले इस दुर्ग के निर्माण से पहले। आपके द्वारा स्वैच्छिक नर बलि देनी होगी। तभी किले को बनाया जा सकेगा। अथवा नही
इतने में भैरव मुनि बोले। में अपनी स्वयं की बलि देने को तैयार हु। परंतु किले के निर्माण में मेरा भी नाम अंकित किया जाना चाहिए।
दूसरी बात भैरव मुनि बोले। जहां में अपनी कटी गर्दन को लेकर। विश्राम करने को ठहरु। वहां किले का मुख्य दरवाजा होगा।
दूसरी बात भैरव मुनि बोले। जहां में अपनी कटी गर्दन को लेकर। विश्राम करने को ठहरु। वहां किले का मुख्य दरवाजा होगा।
वही दूसरी ओर अंतिम सांस तक में जहां रुकू। वही से किले के निर्माण की शुरुआत की जाएगी।
जहां मुनि ने विश्राम किया था। उसे वर्तमान में भैरव पॉल कहा जाता है।
जहां मुनी अपनी कटी हुई गर्दन के साथ अंतिम सांस तक चले। वही से कुंभलगढ़ दुर्ग बनाना चालू हुआ।
तो दर्शकों कुछ इस प्रकार थी। कुंभलगढ़ दुर्ग की निर्माण प्रक्रिया। पूरा इतिहास यहां देखे।