मेवाड़ी बोली का परिचय, शुरुआत, क्षेत्र, विकास एवं इतिहास

1. मेवाड़ी बोली का परिचय

मेवाड़ी बोली

मेवाड़ी बोली, जो राजस्थानी भाषा का एक प्रमुख हिस्सा है, वास्तव में एक समृद्ध उपबोली मानी जाती है। यह मुख्य तौर पर राजस्थान के दक्षिण-पश्चिम क्षेत्र में बोली जाती है, खासकर उदयपुर, चित्तौड़गढ़, राजसमंद, भीलवाड़ा, डूंगरपुर, बांसवाड़ा और प्रतापगढ़ जैसे जिलों में। सिर्फ भाषा नहीं, ये बोली मेवाड़ क्षेत्र की सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान का एक अहम हिस्सा है।

जब हम मेवाड़ी बोलते हैं, तो हम न केवल संवाद करते हैं, बल्कि एक पूरी सभ्यता और उसके अतीत को भी जीवित रखते हैं। यह बोली वैदिक संस्कृत से शुरू होकर प्राचीन प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं से विकसित हुई है, जिससे इसके भीतर इन भाषाओं की छाप साफ दिखती है। इसकी लय और प्रवाह इसे बाकी बोलियों से अलग बनाते हैं।

इतिहास की बात करें तो मेवाड़ी बोली का विकास एक समय में नहीं हुआ, बल्कि यह एक लंबे समय के दौरान धीरे-धीरे फलफूलती रही है। मेवाड़ के लोग हमेशा से अपने स्वतंत्र और स्वाभिमानी शासन के लिए जाने जाते थे, और यह भावनाएं उनकी भाषा में गहरी बैठी हुई हैं। मेवाड़ी में वीरता, बलिदान और स्वाभिमान की कहानियां सुनाई देती हैं।

चित्तौड़ के राजाओं और रानियों की गाथाएँ, गांव के लोकजीवन की कहानियाँ आज भी इसी बोली में लोकगीतों, भजन और कथाओं के जरिए जीवित हैं। मीरा बाई की रचनाओं ने इस बोली को आध्यात्मिकता का एक गहरा माध्यम बनाया है, जिसमें उनकी कविताएं न केवल प्यार की बात करती हैं, बल्कि यह भी दर्शाती हैं कि मेवाड़ी में गहराई और भावनाओं का कितना प्रभाव होता है।

मेवाड़ी की भाषा की रचना और वाक्य विन्यास में एक खास तरह की मिठास होती है। ध्वनियों की स्पष्टता और प्रभावशालीता इसे और आकर्षक बनाती हैं। मेवाड़ी में संस्कृत के साथ-साथ लोक शब्दों का अच्छा ताना-बाना देखने को मिलता है।

जैसे, है की जगह छे, था की जगह तो, क्यों की जगह कांई, क्या की जगह काय, और अब की जगह हव जैसी शब्दों का इस्तेमाल इसे खास बनाता है। इसी तरह के शब्द जैसे कड़्यो, गयो, आव्यो इत्यादि मेवाड़ी की ध्वन्यात्मक पहचान हैं।

इस बोली में कई विषयों का जिक्र होता है। जैसे कृषि, पशुपालन, वीरता, आध्यात्मिकता और ग्रामीण जीवन की विभिन्न बातें। यह बोली तो खासकर ग्रामीण जीवन के साथ जुड़ी हुई है, जिसमें जीवन, समस्याएं, खुशियां, संघर्ष, रिश्ते और भावनाएं सब अपने आप में समाहित हो जाती हैं।

परिवारों में जो सम्मान और संबंध होता है, उसे व्यक्त करने के लिए मेवाड़ी में कई खास शब्द होते हैं। जैसे, कोई बड़े या सम्मानित व्यक्ति से बात करते समय तूं की जगह तमे या थां का इस्तेमाल किया जाता है, जो संवाद में एक सम्मान का तत्व लाता है। इसी तरह, बच्चों से बात करते समय थाने या तूं जैसे शब्दों का प्रयोग अधिक स्नेह से होता है।

मेवाड़ी बोली में लोकगीतों का भी गहरा महत्व है। शादी-ब्याह, तीज-त्योहार, फसल कटाई, युद्ध, विरह और भक्ति जैसे विषयों से जुड़े गीतों में हमें मेवाड़ी बोली की सुंदरता नजर आती है। जैसे ‘पंचड़ा’, ‘गौरबंद’, ‘घूमर’, ‘तेरह ताली’, ‘मांड’ आदि गीतों में मेवाड़ी की संस्कृति और भावनाओं का अद्भुत समावेश देखने को मिलता है। ये गीत पीढ़ियों से मौखिक परंपरा में गाए जाते रहे हैं और आज भी गांवों में चौपालों, मेले और धार्मिक आयोजनों में सुनाई देते हैं। इन गीतों की सरलता और भावनाओं के गहरे अर्थ श्रोताओं को छू जाते हैं।

प्राचीन और मध्यकालीन साहित्य में भी मेवाड़ी बोली का प्रभाव साफ नजर आता है। मीराबाई की रचनाओं से लेकर कवि कन्हैयालाल सेठिया, विजयदान देथा, और लक्ष्मीकुमार चूड़ावत तक ने इस बोली को साहित्य की ऊंचाई पर पहुंचा दिया है। आज भी कई लेखक और कवि मेवाड़ी में लिखकर इसे आगे बढ़ा रहे हैं। खासकर विजयदान देथा की कहानियों में मेवाड़ी बोली की मिठास और ग्रामीण जीवन की सच्चाईयां बखूबी नजर आती हैं।

आजकल जब कई भाषाएं तकनीकी और वैश्विक दबाव के कारण संकट में हैं, मेवाड़ी बोली भी इससे अछूती नहीं है। युवा पीढ़ी में हिंदी और अंग्रेज़ी का बढ़ता प्रभाव इसके उपयोग पर असर डाल रहा है। शहरीकरण, आधुनिक शिक्षा और मीडिया की प्राथमिकताओं ने मेवाड़ी बोली को कुछ हद तक सीमित कर दिया है।

फिर भी, यह बोली आज भी ग्रामीण क्षेत्रों और सांस्कृतिक आयोजनों में जीवित है। युवा इस बोली में कविताएं, हास्य और लोककथाएं इंटरनेट पर साझा कर रहे हैं, जिससे यह एक बार फिर से लोकप्रियता की ओर बढ़ रही है।

भाषा के नजरिए से देखें तो मेवाड़ी बोली राजस्थानी भाषा के पश्चिमी समूह की एक समृद्ध उपबोली है। इसकी ध्वनियां सुनने में सहज होती हैं, और इसकी व्याकरण का ढांचा भी सरल है। यहाँ कई जगह ‘र’ की जगह ‘ड’ या ‘ळ’ और ‘स’ की जगह ‘ह’ का प्रयोग किया जाता है, जिससे इसकी पहचान और मजबूत होती है।

संस्कृति और परंपरा के संरक्षण में मेवाड़ी बोली की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। यह बोली विचारों, भावनाओं और मूल्यों का आदान-प्रदान करती है। इसमें इतिहास की कहानियां, परंपराएं, और समस्त मानवीय भावनाएं शामिल होती हैं। कोई भी बोली केवल संवाद का एक जरिया नहीं होती, बल्कि वह समाज की आत्मा होती है, और मेवाड़ी बोली इसी मायने में जीवंत है, जो मेवाड़ की मिट्टी, पानी, और हवा के साथ घुली हुई है।

शिक्षा, प्रशासन और मीडिया में मेवाड़ी बोली को उचित स्थान नहीं मिलने के बावजूद इसके संरक्षण के प्रयास चलते रहते हैं। कई साहित्यिक समूह, लोक कलाकार और शिक्षक इस बोली के बढ़ावा देने के लिए काम कर रहे हैं। राजस्थान सरकार द्वारा राजस्थानी को आठवीं अनुसूची में शामिल करने के लिए चल रहे प्रयासों में मेवाड़ी बोलियों की एक महत्वपूर्ण भूमिका है। अगर राजस्थानी भाषा को कानूनी मान्यता मिलती है, तो मेवाड़ी को भी नई पहचान और दिशा मिलेगी।

आखिरकार, मेवाड़ी बोली केवल कुछ शब्दों का समूह नहीं है। यह एक पूरे समाज, संस्कृति और गौरवशाली परंपरा का परिचायक है। यह बोली मेवाड़ की आत्मा को व्यक्त करती है, इतिहास को जीवंत बनाती है और वर्तमान को अतीत से जोड़ती है। इसे संरक्षित करना सिर्फ भाषा की जिम्मेदारी नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक जिम्मेदारी भी है, जिसे हमें बेहद प्यार और गर्व के साथ निभाना चाहिए।

2. मेवाड़ी भाषा की शुरुआत

मेवाड़ी बोली

मेवाड़ी बोली का इतिहास बहुत दिलचस्प और गहरा है। इसकी शुरुआत भारतीय उपमहाद्वीप की पुरानी भाषाओं से जुड़ी हुई है, जो समय के साथ बदलती गई हैं। ये बदलाव सिर्फ भाषा में ही नहीं, बल्कि उस समय की संस्कृति, राजनीति और लोक परंपराओं में भी नजर आते हैं। अगर हम मेवाड़ी भाषा के विकास को समझना चाहते हैं, तो हमें इसके इतिहास में जाना होगा, जो वैदिक काल से लेकर आज तक फैला हुआ है।

मैं आपको ये बताना चाहता हूं कि मेवाड़ी को एक साधारण स्थानीय बोली समझना गलत होगा। यह खुद में एक जीवंत सांस्कृतिक आंदोलन है। यह भाषा मेवाड़ की पहचान बन चुकी है, जो इस क्षेत्र के लोगों के संघर्ष और उपलब्धियों को व्यक्त करती है।

मेवाड़ी भाषा का पता लगाने के लिए सबसे पहले हमें प्राचीन भारतीय भाषाओं की ओर देखना होगा। संस्कृत, जिसे भारतीय भाषाओं की जननी कहा जाता है, वैदिक युग में बहुत महत्वपूर्ण थी। यह वो समय था जब संस्कृत ही धार्मिक और दार्शनिक विचारों से लेकर शैक्षणिक चर्चाओं का मुख्य माध्यम थी। लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, संस्कृत की जटिलता के कारण यह आम लोगों की भाषा नहीं रह गई।

तब प्राकृत भाषाएं उभरीं, जो कहीं आसान और जनता के लिए ज्यादा सुलभ थीं। प्राकृत ने मौर्य काल में विशेष रूप से लोकप्रियता हासिल की और धीरे-धीरे पूरे भारत में फैल गई। राजस्थान में भी बहुत सी प्राकृत उपशाखाएं उभरीं, और इन्हीं से अपभ्रंश भाषाओं का जन्म हुआ।

अपभ्रंश भाषाएं उस समय का माध्यम थीं, जब लोग अपने भावों, भावनाओं और संस्कृति को व्यक्त करने लगे। राजस्थान के विभिन्न हिस्सों में स्थानीय भाषाएं उभरने लगीं, जो शौर्य और भक्ति की कहानियों से भरी हुई थीं। पश्चिमी अपभ्रंश, जो आज के राजस्थान और गुजरात में बोली जाती थी, से राजस्थानी भाषा की उपबोलियों का जन्म हुआ, जैसे कि मेवाड़ी। यह बोली मुख्यतः मेवाड़ क्षेत्र में विकसित हुई, जो आज दक्षिणी राजस्थान में है।

मेवाड़ का इतिहास बहुत दिलचस्प है। ये क्षेत्र कई शक्तिशाली राजवंशों का केंद्र रहा, जिसमें गुहिल, सिसोदिया और राणा वंश शामिल हैं। गुहिल वंश के संस्थापक बप्पा रावल के समय से ही इस क्षेत्र की राजनीतिक ताकत बढ़ी और साथ ही यह क्षेत्र अपनी सांस्कृतिक पहचान को भी विकसित करने लगा। भाषाई बदलाव भी इसी काल में हुआ, जब मेवाड़ी भाषा न केवल बातचीत का एक साधन बनी, बल्कि एक पहचान और संस्कृति का भी प्रतीक बन गई।

अगर हम मेवाड़ी बोली के लक्षणों पर ध्यान दें, तो यह पश्चिमी राजस्थानी भाषा की उपशाखा मानी जाती है। इसमें मारवाड़ी और हाड़ौती जैसी बोलियों के कुछ तत्व मिलते हैं, पर फिर भी मेवाड़ी की अपनी एक खास पहचान है। इसके उच्चारण, शब्द और वाक्य संरचना अन्य राजस्थानी बोलियों से अलग हैं। मेवाड़ी में कई पारंपरिक शब्द ऐसे हैं, जो केवल इसी बोली में मिलते हैं। इसका उच्चारण बहुत आसान और मधुर है, जो इसे औरों से अलग बनाता है।

मेवाड़ी सिर्फ शब्दों का समूह नहीं है, बल्कि यह एक जीवित परंपरा है। इसमें समाज के हर पहलू का समावेश होता है। चाहे कोई त्योहार हो, शादी हो, अनुष्ठान या फिर किसी की मृत्यु—मेवाड़ी हर मौके की भावनाओं को बखूबी व्यक्त करती है। जैसे, जब कोई दादी अपने पोते को मेवाड़ी में कहानी सुनाती है, या महिलाएं त्योहार के मौके पर मेवाड़ी गीत गाती हैं, तो ये केवल मनोरंजन नहीं होते, बल्कि ये उस भाषाई परंपरा का जीता-जागता स्वरूप होते हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी चलती आ रही है।

मेवाड़ी बोली के विकास में संतों का भी बड़ा योगदान रहा है। संत मीराबाई ने मेवाड़ी को अपनी भक्ति की अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। उनके द्वारा लिखे गए भक्ति गीत आज भी लोगों के दिलों को छूते हैं। मीरा के पदों में जो गहराई और प्रेम की भावना है, वह मेवाड़ी की खूबसूरती को दिखाती है। इसके अलावा, इस क्षेत्र में अन्य कवियों और संतों ने भी इसे अपने विचारों का माध्यम बनाया।

इतिहास की pages पलटने पर हमें यह भी पता चलता है कि मेवाड़ी बोली को राज दरबारों में भी महत्व दिया गया। महाराणा कुम्भा जैसे शासकों ने इस भाषा को सांस्कृतिक रूप से समृद्ध किया। उनके शासनकाल में कई ग्रंथ लिखे गए, जिनमें मेवाड़ी का भी प्रयोग हुआ। चित्तौड़गढ़ दुर्ग जैसे स्थानों ने इस भाषा को आगे बढ़ाने में मदद की।

जब पूरा देश मुगलों के शासन के अधीन था, तब भी मेवाड़ ने अपनी स्वतंत्रता और संस्कृति की रक्षा की। महाराणा प्रताप जैसे वीरों ने लड़ाई लड़ी और मेवाड़ी को जीवित रखा। चारणों और भाटों ने युद्धों की कहानियों को मेवाड़ी में गाया, जिससे इस भाषा में वीरता का भाव भर गया।

आधुनिक समय में जब अंग्रेज़ी का प्रभाव बढ़ा, तब भी मेवाड़ी का अस्तित्व बना रहा। इसे औपचारिक मान्यता भले ही नहीं मिली, पर यह लोगों के जीवन में महत्त्वपूर्ण बनी रही। आज भी मेवाड़ी लोकनाट्य, गीत और कहावतों में प्रचलित है। स्वतंत्रता के बाद संविधान में भाषाओं की सूची में इसका स्थान नहीं मिला, बावजूद इसके यह कई लोगों की मातृभाषा बनी हुई है।

अब जब दुनिया तकनीकी रूप से आगे बढ़ रही है, तब भी मेवाड़ी का अस्तित्व बना हुआ है। कई संगठन, साहित्यकार और कलाकार इस भाषा को बचाने की कोशिश में जुटे हैं। इंटरनेट और सोशल मीडिया ने मेवाड़ी को एक नया प्लेटफॉर्म दिया है। युवा पीढ़ी इस भाषा में नई रुचि दिखा रही है।

तो, मेवाड़ी बोली की शुरुआत एक लंबी और गहरी प्रक्रिया का परिणाम है। यह न केवल संवाद का माध्यम है, बल्कि यह एक क्षेत्र की आत्मा और संस्कृति का प्रतीक भी है। मेवाड़ी आज भी उस धरोहर को बनाए रखा है, जिसमें प्रेम, भक्ति, शौर्य और आत्मगौरव को समाहित किया गया है। इसी वजह से यह भाषा न केवल जीवित है, बल्कि आज भी लोगों के दिलों में बसी हुई है।

3. मेवाड़ी भाषा का विकास 

मेवाड़ी बोली की कहानी एक बेहद दिलचस्प सफर है। यह सिर्फ एक भाषा नहीं है, बल्कि इसकी गहराई सांस्कृतिक, सामाजिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से जुड़ी हुई है। मेवाड़ी, जो राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र से निकली है, वहां की अपनी परंपराओं और लोगों के संघर्षों की सच्ची झलक देती है। इस भाषा का विकास एकदम सीधा और आसान नहीं रहा; यह समय के साथ खड़ी हुई है और इसमें उस काल के सभी अनुभव समाहित हैं।

मेवाड़ी बोली का चलन जब शुरू हुआ, तो यह मुख्य रूप से मौखिक परंपराओं द्वारा प्रसारित होती थी। लोग अपनी बातों को गीतों और कहानियों में छिपाकर रखते थे। खेतों में काम करने वाले किसान हों या चरवाहे, यह भाषा उनके बीच जीवित प्यारी दोस्त बन गई। उस समय इसे लिपि में नहीं लिखा जाता था, लेकिन इसकी मौखिक शक्ति ने इसे लोगों के दिलों में बहुत गहराई तक उतार दिया। जैसे ही राजसी परिवारों ने इसे अपनी संस्कृति का हिस्सा मान लिया, ये मशहूर दरबारों में भी जगह बनाने लगी।

मेवाड़ी बोली का विकास चारण, भाट और जोशी जैसे परंपराओं से भी गहराई से प्रभावित हुआ है। चारण कवियों की कहानियां वीरता और भक्ति भरी होती थीं। उनके गीत न केवल मनोरंजन करते थे, बल्कि वे समाज की रक्षा और साहस का प्रेरणा स्रोत भी बनते थे। जब लोग युद्ध के मैदान में अपनी जान दे रहे होते थे, तब ये कवि उनकी हिम्मत को बढ़ाते थे। इस तरह की भाषा ने ना सिर्फ सामाजिक चेतना को बढ़ाया, बल्कि उन इमोशंस को भी शब्दों में ढाल दिया।

भक्ति आंदोलन ने भी मेवाड़ी को एक नया मंच दिया। मीरा बाई जैसे संत कवियों ने इस भाषा में अपने प्रगाढ़ भावनाओं को पिरोया, जो आज भी भक्तिवाद का एक चमकदार उदाहरण मानी जाती है। मीरा के गीतों में भक्ति का अद्भुत अनुभव होता है। उनकी कविताओं में ढेर सारे भाव, संगीत और लय मौजूद है। मीरा ने मेवाड़ी का इस्तेमाल करके अपने अनुभव और भावनाएं व्यक्त कीं, जो केवल धार्मिक अभिव्यक्ति नहीं बल्कि एक सामाजिक व व्यक्तिगत संघर्ष की कहानी भी बयां करती हैं।

राजनैतिक अनुसंधान के समय में, जैसे राणा कुम्भा के शासन में, भाषा को भी बहुत महत्व मिला। इस समय में साहित्य, संगीत और कला के साथ-साथ मेवाड़ी ने अपने लिए जगह बनाना शुरू किया। शासकों ने मेवाड़ी का उपयोग साहित्यिक ग्रंथों में किया, जिससे यह मान्यता प्राप्त हुई। कई ग्रंथों और लेखों में मेवाड़ी का प्रयोग दिखाई देता है, जो इसे सिर्फ एक लोकभाषा से राज्य की आवाज बनाता है।

जब मुघल सत्ता आई, तो भाषा में भी बदलाव आया। फारसी और अरबी का प्रभाव बढ़ा, लेकिन मेवाड़ी ने अपनी मौलिकता को बनाए रखा। महाराणा प्रताप जैसे राणाओं ने समाज की सांस्कृतिक पहचान की रक्षा की, और लोकभाषा के रूप में मेवाड़ी ने अपनी जड़ें और गहरी कर लीं। इस समय के चारणों और भाटों ने मेवाड़ी में वीरता के गीत गाकर इतिहास को जीवित रखा।

जब ब्रिटिश राज आया, तो हालांकि अंग्रेज़ी को प्राथमिकता दी गई, लेकिन मेवाड़ी ने अपने अस्तित्व को बनाए रखा। ग्रामीण समाज में इसे अभी भी गाने, बोलने और लोक साहित्य में दौड़ता हुए देखा जा सकता था। इस समय के बाद कई साहित्यकारों ने मेवाड़ी भाषा को संरक्षित करने का काम किया। यह अवधि भी मेवाड़ी साहित्य में नई दिशा लेकर आई, जिसमें ग्रामीण जीवन, स्त्रियों की आवाज और सामाजिक मुद्दे उठाए गए।

आजादी के बाद, भारत के संविधान ने कई भाषाओं को मान्यता दी, लेकिन मेवाड़ी को राजस्थानी की एक उपबोली के रूप में देखा गया। यह बेहद दुखद रहा, क्योंकि इस भाषा की अपनी पहचान और विशेषताएं हैं। फिर भी, मेवाड़ी ने अपनी सांस्कृतिक महत्वता को खत्म नहीं होने दिया। यह अभी भी विवाह समारोह, त्योहारों और पारंपरिक रीति-रिवाजों में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है।

वर्तमान में, जब तकनीक का राज है, मेवाड़ी ने भी खुद को अपडेट किया है। यूट्यूब, सोशल मीडिया और इंटरनेट पर मेवाड़ी में बहुत सारा कंटेंट बन रहा है। युवा इसे सीख रहे हैं और अपनी सांस्कृतिक पहचान के रूप में अपनाए हुए हैं। मोबाइल एप्स और वेबसाइट्स भी इस भाषा को बढ़ावा देने की दिशा में कार्य कर रहे हैं, जिससे इसे नई पीढ़ी तक पहुंचाने में मदद मिल रही है।

अंत में, मेवाड़ी बोली ना केवल एक भाषिक प्रक्रिया है, बल्कि यह समाज, संस्कृति और इतिहास का एक जीवित प्रतिबिम्ब है। यह राजस्थान की आत्मा है, जो अपने अतीत को संजो कर रखती है और भविष्य की उम्मीदों को भी अपने में समाहित किए हुए है।

इसकी यात्रा हमें यह सिखाती है कि एक भाषा सिर्फ संवाद की माध्यम नहीं होती, बल्कि यह हमारे समाज और संस्कृति का दर्पण होती है। एक मजबूत समाज अपनी जड़ों को पहचानकर अपनी भाषा को भी जीवित रखता है, भले ही उसे औपचारिक मान्यता हासिल न हो।

4. मेवाड़ी भाषा के क्षेत्र

मेवाड़ी बोली का इतिहास और उसका विस्तार एक ऐसा विषय है जो हमें राजस्थान की जीवंतता और सांस्कृतिक विविधता को समझाता है। यह भाषा मुख्य रूप से राजस्थान के दक्षिण-पश्चिम हिस्से में, जिसे हम मेवाड़ कहते हैं, पनपी है। अगर हम इसकी मुख्य जगहों की बात करें, तो उदयपुर, राजसमंद, चित्तौड़गढ़, भीलवाड़ा और डूंगरपुर जैसे जिले इसे अपने में समेटे हुए हैं। ये इलाके अपने इतिहास, संस्कृतिक परंपराओं, और भौगोलिक विशेषताओं के लिए जाने जाते हैं और यही कारण है कि मेवाड़ी भाषा यहां की पहचान बन गई है।

उदयपुर, जो मेवाड़ की राजधानी के रूप में जाना जाता है, केवल एक प्रशासनिक केंद्र नहीं है, बल्कि यहां की गलियों, बाजारों और दरबारों में भी मेवाड़ी भाषा की खुमारी बसी हुई है। यहां के भजन, जो हवेलियों में गूंजते हैं, और मंदिरों में गाए जाने वाले गीत, हर जगह इस भाषा की मिठास और गहराई को दर्शाते हैं। मेवाड़ी भाषा का यह सांस्कृतिक इस्तेमाल इसे जीवित रखने का काम करता है, साथ ही इसे हमारे जीवन का हिस्सा बनाता है।

राजसमंद और चित्तौड़गढ़ भी मेवाड़ी भाषा के अस्तित्व में अहम भूमिका निभाते हैं। चित्तौड़गढ़, जो रानी पद्मिनी और महाराणा प्रताप जैसे वीरता के प्रतीकों के लिए मशहूर है, यहां की लोककथाएं और गाने मेवाड़ी बोली में जीवंतता से भरे हुए हैं। इन क्षेत्रों में जहां मेवाड़ी बोली जाती है, वहां की संस्कृति और पहचान हर बुनाई में उलझी हुई है। जबकि भीलवाड़ा के इलाके में मेवाड़ी भाषा ने व्यापार के चलते एक नई शक्ल ली है। यहां के व्यापारियों का बातचीत करने का तरीका भी इसे एक व्यावसायिक जीवन का हिस्सा बनाता है।

डूंगरपुर और बांसवाड़ा जैसे जनजातीय क्षेत्रों में मेवाड़ी का स्वरूप कुछ खास है। यहां की जनजातीय संस्कृतियों में भील और गरासी समुदायों का योगदान है जो कि इस भाषा में एक नई धुन डालते हैं। यहां बोली जाने वाली मेवाड़ी में विविधता देखने को मिलती है, जो दर्शाती है कि यह भाषा कैसे अलग-अलग परिवेश के अनुसार खुद को ढालती है। यह विविधता इसे सिर्फ एक बोली नहीं, बल्कि एक जीवंत प्रणाली बना देती है।

अगर हम भूगोल की दृष्टि से देखें, तो अरावली पर्वत मेवाड़ी भाषा के लिए एक प्राकृतिक दीवार की तरह काम करता है। यह पर्वत मेवाड़ को आसपास के मरुस्थल और हरित क्षेत्रों से जोड़ता है। यही कारण है कि इस क्षेत्र में रहने वालों की बोलचाल मस्त रहती है। जलवायु, कृषि तकनीक और जल स्रोत जैसे पहलुओं ने भी इस भाषा के विकास में योगदान दिया है। जिन क्षेत्रों में पानी की भरपूर उपलब्धता है, वहां मेवाड़ी भाषा का भी अधिक उपयोग होता है।

मेवाड़ी ने विभिन्न सामाजिक वर्गों के बीच संवाद का एक पुल बनाया है। राजपूतों, ब्राह्मणों, और अन्य जातियों ने इसे अपने सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों में शामिल किया है। यह केवल संवाद का एक साधन नहीं है, बल्कि यह पहचान बनाने में भी महत्वपूर्ण रहा है। शादी, त्योहार, और रोजमर्रा की जिंदगी में यह भाषा इतनी महत्वपूर्ण हो गई है कि यह हमारी भावनाओं और संबंधों का अहसास करवाती है।

उदयपुर और चित्तौड़गढ़ के मेवाड़ी के बोलने के तरीके में थोड़ी भिन्नता भी देखने को मिलती है। डूंगरपुर वगैरह की जनजातीय मेवाड़ी में कुछ अलग उच्चारण और शब्दों की संरचना पाई जाती है। हर एक रूप भाषा की गहराई में इजाफा करता है। ये विविधताएं हमें यह भी दिखाती हैं कि मेवाड़ी समय और स्थान के साथ किस तरह अंकित होती है और अपनों को नहीं भूलती।

मेवाड़ी बोली ने सामाजिक आंदोलनों, राजनीतिक संघर्षों और सांस्कृतिक पुनर्जागरण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यहां पर शूरवीरों के किस्से और उनकी वीरताएं मेवाड़ी में गाई गईं। मीरा बाई ने भी इसी भाषा में अपने भक्ति भाव को प्रकट किया। यह भाषा न केवल राजनीति, बल्कि साहित्य और समाज को नए अर्थ देने का काम कर रही है।

जब हम मेवाड़ी बोलने वाले क्षेत्रों पर बात करते हैं, तो यह केवल नक्से पर सीमित नहीं है। यह एक सम्पूर्ण अनुभव है, जो उन स्थानों से जुड़ा हुआ है जहां यह भाषा सुनाई देती है। मेवाड़ी केवल एक बोली नहीं, बल्कि यह राजस्थान की सांस्कृतिक धड़कन है। इसकी गहराई और परंपराएं न केवल अतीत से जुड़ी हैं, बल्कि वर्तमान और भविष्य में भी इसकी महत्वपूर्णता बनी रहेगी। यकीनन, मेवाड़ी एक अद्भुत भाषाई धरोहर है जो आज भी जीवित है।

5. मेवाड़ी बोली का इतिहास

मेवाड़ी बोली

मेवाड़ी बोली का इतिहास भारत की भाषाई और सांस्कृतिक विविधता का एक मजेदार पहलू है, जो राजस्थान की संस्कृति का हिस्सा है और उत्तर-पश्चिम भारत में भाषाई विकास को भी दिखाता है। यह बोली राजस्थानी भाषा परिवार की एक अहम उपभाषा है, इसका विकास ऐतिहासिक, सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक परिस्थितियों से जुड़ा हुआ है।

मेवाड़ी बोली की जड़ें वैदिक संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और मध्यकालीन राजस्थानी से जुड़ी हैं। यह विकास सिर्फ शब्दों और व्याकरण तक सीमित नहीं है, बल्कि यह समाज की चेतना और सांस्कृतिक पहलुओं से भी संबंधित है, जिससे मेवाड़ी बोली की एक खास पहचान बनी है।

पहले के समय में जब संस्कृत और पाली जैसी भाषाएं शासन और शिक्षा में प्रमुख थीं, तब बोलियां जैसे शौरसेनी प्राकृत आम जन की भाषा बन रही थीं। शौरसेनी अपभ्रंश, जो मध्य और पश्चिम भारत में था, ने राजस्थान की बोलियों को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यही अपभ्रंश बाद में राजस्थानी बोलियों के विकास के लिए आधार बना और मेवाड़ी बोली ने वहीं से जन्म लिया।

10वीं से 12वीं शताब्दी के बीच राजस्थान में अपभ्रंश से मध्यकालीन राजस्थानी की शुरुआत हुई और 13वीं शताब्दी के बाद मेवाड़ी जैसी बोलियां सामने आईं। इस समय मेवाड़ में गुहिल वंश का राज था, जिन्होंने संस्कृति और भाषा को बढ़ावा दिया। मेवाड़ी बोली ने सरकारी दस्तावेज, धार्मिक ग्रंथों और लोकगीतों में जगह बनानी शुरू की, जिससे यह आम लोगों की भाषा बन गई और साहित्यिक अभिव्यक्ति का माध्यम भी बनी।

चित्तौड़गढ़ में मेवाड़ी बोली का उपयोग दरबारों और मंदिरों में सामान्य हो गया था। यह बोली न केवल बात करने का जरिया बनी, बल्कि इससे जुड़े साहित्य और भक्ति गीत भी तैयार हुए। संत कवि रामस्नेही ने भी इस बोली का उपयोग अपने विचार व्यक्त करने के लिए किया।

14वीं और 15वीं शताब्दी में मेवाड़ी बोली को साहित्य में और भी स्थान मिला। इस समय भक्ति और वीर रस की कहानियों ने इसे और समृद्ध किया। मीरा बाई जैसी कवि ने अपनी भक्ति को इस बोली में व्यक्त किया, जिससे यह लोगों के दिलों में बस गई।

इस बोली के विकास में राणा कुम्भा और राणा सांगा जैसे शासकों का भी योगदान रहा। उन्होंने साहित्य और कला को बढ़ावा दिया और मेवाड़ी बोली को भी महत्वपूर्णता दी। महाराणा प्रताप के समय में यह बोली शौर्य और आत्मसम्मान की कहानियों का प्रतीक बनी।

17वीं और 18वीं शताब्दी में मेवाड़ी बोली का प्रसार हुआ और इसने क्षेत्रीय साहित्य को नया रूप दिया। कई लोककवि ने इस बोली में रचनाएँ कीं, जो आज भी संस्कृति का हिस्सा हैं।

19वीं शताब्दी में ब्रिटिश राज के दौरान भी यह बोली कायम रही। आज भी यह विवाहों, त्योहारों और पारिवारिक मामलों में सुनी जाती है। स्वतंत्रता आंदोलन में भी मेवाड़ी बोली ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

20वीं शताब्दी में मेवाड़ी बोली को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा, लेकिन यह आज भी जीवित है। वर्तमान में, यह बोली सिर्फ संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि संस्कृति और पहचान का प्रतीक है। मेवाड़ी बोली का इतिहास हमारे समाज में बदलाव और सांस्कृतिक विकास की कहानी है। यह एक ऐसी बोली है जो लोगों के जीवन में गहराई से जुड़ी हुई है।

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Author

  • Lalit Kumar

    नमस्कार प्रिय पाठकों,मैं ललित कुमार ( रवि ) हूँ। और मैं N.H.8 भीम, राजसमंद राजस्थान ( भारत ) के जीवंत परिदृश्य से आता हूँ।इस गतिशील डिजिटल स्पेस ( India Worlds Discovery | History ) प्लेटफार्म के अंतर्गत। में एक लेखक के रूप में कार्यरत हूँ। जिसने अपनी जीवनशैली में इतिहास का बड़ी गहनता से अध्ययन किया है। जिसमे लगभग 6 साल का अनुभव शामिल है।वही ब्लॉगिंग में मेरी यात्रा ने न केवल मेरे लेखन कौशल को निखारा है। बल्कि मुझे एक बहुमुखी अनुभवी रचनाकार के रूप में बदल दिया है। धन्यवाद...

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