महात्मा गांधी का असहयोग आंदोलन की शुरुआत क्यों की. क्या था इस आंदोलन के पीछे का कारण. जानिए महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन के बारे में विस्तार से.
1. महात्मा गांधी का असहयोग आंदोलन

महात्मा गांधी द्वारा शुरू किया गया महात्मा गांधी का असहयोग आंदोलन भारत की आजादी की लड़ाई में एक नया मोड़ लाया। महात्मा गांधी का असहयोग आंदोलन 1920 में शुरू हुआ, जिसका मकसद ब्रिटिश शासन के खिलाफ शांतिपूर्ण तरीके से लड़ाई लड़ना और इसे चुनौती देना था। गांधीजी का मानना था कि अगर भारतीय लोग ब्रिटिश राज का साथ देना बंद कर दें, तो वह अपने आप टूट जाएगा, क्योंकि उसकी ताकत भारतीय लोगों के समर्थन पर निर्भर थी।
महात्मा गांधी का असहयोग आंदोलन की विचारधारा चंपारण सत्याग्रह, खेड़ा आंदोलन, और अहमदाबाद मिल श्रमिक संघर्ष जैसे पहले के आंदोलनों से निकली थी। गांधीजी ने हमेशा सच्चाई और अहिंसा को अपनी लड़ाई का आधार माना।
उन्होंने जनता से कहा कि उन्हें सरकारी संस्थानों, नौकरियों, और विदेशी सामान का बहिष्कार करना चाहिए। इसका उद्देश्य केवल सत्ता का विरोध करना नहीं था, बल्कि स्वदेशी वस्त्र अपनाने और आत्मनिर्भर बनने के लिए भी प्रेरित करना था। जैसे-जैसे आंदोलन आगे बढ़ा, खादी जैसे भारतीय कपड़ों को पहनना स्वाभिमान का प्रतीक बन गया।
महात्मा गांधी का असहयोग आंदोलन का खाका 1920 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन में पेश किया गया था। यह आंदोलन तीन चरणों में बांटा गया था। पहले चरण में लोगों से सम्मान और उपाधियों को लौटाने को कहा गया, दूसरे चरण में सरकारी संस्थाओं का बहिष्कार और तीसरे चरण में करों और सेवाओं का त्याग करने की बात हुई।
गांधीजी का मानना था कि पहले लोगों को मानसिक रूप से तैयार करना जरूरी है, फिर सरकारी संस्थाओं से हटकर एक स्वदेशी ढांचा बनाना है, और जरूरत पड़ी तो करों का बहिष्कार करना है।

महात्मा गांधी का असहयोग आंदोलन ने देशभर में जागरूकता फैलाई। वकीलों ने अदालतों का बहिष्कार किया, शिक्षक और छात्र सरकारी स्कूलों का साथ छोड़ने लगे, और बहुत से लोग सरकारी नौकरियों से इस्तीफा देने लगे। उन्होंने विदेशी कपड़ों की होली जलाना शुरू किया और खादी पहनना एक राष्ट्रीय गर्व का प्रतीक बन गया।
इससे पहले जिन वर्गों का स्वतंत्रता संग्राम में कोई खास भाग नहीं था, वो सब भी अब गांधीजी के नेतृत्व में आ गए। किसान, मजदूर, महिलाएं, और ग्रामीण जनसंख्या जैसे कई समूह इस आंदोलन में शामिल हो गए। यह एक ऐसा पल था जब पूरे देश ने एक साथ एक लक्ष्य की ओर बढ़ना शुरू किया। असहयोग आंदोलन ने यह साफ कर दिया कि अब भारत का आम आदमी शांतिपूर्ण गुलामी को नहीं स्वीकार करेगा।
हालांकि महात्मा गांधी का असहयोग आंदोलन अहिंसक था, ब्रिटिश सरकार इससे चिंतित हो गई और उसने आंदोलनकारियों पर दबाव डालना शुरू कर दिया। आंदोलनकारियों को गिरफ्तार किया जाने लगा और कई जगहों पर हिंसा भी भड़काई गई। लेकिन गांधीजी का हमेशा से यही कहना था कि किसी भी तरह की हिंसा को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।
जब 1922 में उत्तर प्रदेश के चौरी-चौरा में पुलिस थाने को जलाने की घटना हुई, जिसमें कई पुलिसकर्मी मारे गए, तो गांधीजी ने बिना hesitation के आंदोलन को तुरंत स्थगित कर दिया। उनका मानना था कि अगर स्वतंत्रता हासिल करने के लिए हिंसा हो रही है, तो वह सही नहीं है।

इस तरह महात्मा गांधी का असहयोग आंदोलन भले ही उस समय के लिए खत्म हो गया हो, लेकिन इसकी जो भावना थी, वो भारतीय लोगों के दिलों में गहराई से बैठ गई। इसने सबको यह भरोसा दिलाया कि आजादी एक दूर का सपना नहीं है, बल्कि इसे हासिल किया जा सकता है। यह आंदोलन भारतीय राष्ट्रीयता को और मजबूत बनाते हुए एक बार फिर साबित कर गया कि अहिंसात्मक तरीके से भी एक राज को हिलाया जा सकता है।
गांधीजी ने हमेशा यह बात जोर देकर कही कि सत्ता का बहिष्कार करना ही नहीं, बल्कि आत्मा के साथ संवाद करना जरूरी है। उन्होंने कहा कि सच और अहिंसा के रास्ते पर चलने पर हमें कोई हरा नहीं सकता। इस आंदोलन ने भारतीयों को अपने बल पर खड़ा होना और अपनी जीवनशैली खुद तय करने की प्रेरणा दी।
महात्मा गांधी का असहयोग आंदोलन की सबसे बड़ी उपलब्धि यह थी कि इसने आम जनता को स्वतंत्रता संघर्ष से जोड़ा। यह साबित किया कि आजादी केवल कुछ विशिष्ट लोगों की चाहत नहीं, बल्कि हर किसी की जिन्दगी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होना चाहिए। इसने लोकतंत्र, समानता, और सामाजिक न्याय के मूल्यों को हकीकत में लाने में मदद की।
इस प्रकार, असहयोग आंदोलन सिर्फ एक राजनीतिक घटना नहीं थी; यह एक ऐसा मोड़ था जिसने देश की आत्मा को जगाया। गांधीजी का यह प्रयास आज भी लोगों को प्रेरित करता है कि जब हम सभी एकसाथ खड़े होते हैं और सत्य के पथ पर चलते हैं, तो परिवर्तन एकदम संभव है, चाहे सामने कितनी भी बड़ी ताकत क्यों न हो।
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