जहांगीर की शासन काल का एक अहम हिस्सा उनकी न्यायप्रियता थी। उन्होंने खुद को जंजीर-ए-अदालत का निर्माता घोषित किया। अपने दरबार के बाहर एक बड़ी गोल्डन चेन लगवाई.
1. जहांगीर का परिचय

मुगल साम्राज्य की कहानी में सम्राट नूरुद्दीन मोहम्मद जहांगीर का नाम एक खास जगह रखता है। वे केवल एक शक्तिशाली सम्राट ही नहीं थे, बल्कि कला के प्रति उनके प्रेम, न्याय से जुड़े उनके काम, और साहित्य के लिए उनकी रुचि ने उन्हें एक स्थायी छवि दी है।
जहांगीर ने अपने पिता, अकबर महान, के द्वारा शुरू की गई नींव को मजबूत किया। उन्होंने साम्राज्य को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया और एक ऐसे दौर की शुरुआत की, जिसमें मुगल दरबार कला, वास्तुकला और न्याय के लिए मशहूर हुआ।
इस लेख में हम जहांगीर के जीवन, उनके शासन, उनकी संस्कृति, कला, नीतियों और उनके प्रभावों पर विस्तार से चर्चा करेंगे।
2. प्रारंभिक जीवन और पारिवारिक पृष्ठभूमि
जहांगीर का जन्म 31 अगस्त 1569 को फतेहपुर सीकरी में हुआ। उनका असली नाम सलीम था, जो एक प्रसिद्ध सूफी संत हजरत शेख सलीम चिश्ती के नाम पर रखा गया था। कहा जाता है कि अकबर की कोई संतान नहीं बचती थी, और जब उन्होंने शेख सलीम चिश्ती से आशीर्वाद मांगा, तभी सलीम का जन्म हुआ। इसीलिए उन्हें पिताजी का खास प्यार मिला।
जहांगीर की मां का नाम मरियम-उज़-ज़मानी था, जिन्हें हीर कुंवारी या जौधा बाई भी कहते हैं। वे आमेर के राजा भारमल की बेटी थीं। इसलिए जहांगीर आधे राजपूत और आधे तुर्क-मंगोल थे, जिससे उन्हें दोनों संस्कृतियों का ज्ञान मिला।
उनकी परवरिश शाही और सांस्कृतिक माहौल में हुई। अकबर ने उन्हें एक योग्य शासक के तौर पर तैयार किया, जिसमें प्रशासन, युद्ध, साहित्य और नीति की शिक्षा शामिल थी। लेकिन जब वो युवा हुए, तो उनके और अकबर के बीच कुछ मतभेद होने लगे।
सलीम थोड़े स्वतंत्र स्वभाव के थे और एक बार उन्होंने अपने पिता के खिलाफ विद्रोह कर दिया। हालांकि, यह विद्रोह ज्यादा लंबा नहीं चला और 1605 में, अकबर के निधन के बाद, सलीम ने सम्राट के तौर पर गद्दी संभाली।
3. गद्दी पर चढ़ना और शासन का आगाज
25 अक्टूबर 1605 को सलीम ने जहांगीर का नाम धारण किया, जिसका मतलब है दुनिया को जीतने वाला। उन्होंने खुद को नूरुद्दीन मोहम्मद जहांगीर बादशाह गाजी के तौर पर घोषित किया। सत्ता संभालते ही उन्होंने कुछ प्रशासनिक सुधार लागू किए और न्याय व्यवस्था को मजबूत करके इसे प्राथमिकता दी।
जहांगीर का राज कुछ समय तक शांतिपूर्ण रहा। उन्होंने कई विद्रोहों को कुशलता से दबाया। हालांकि, उनके पहले कुछ वर्षों में ही उनके बेटे खुसरो ने उनके खिलाफ विद्रोह किया, जिसे उन्होंने सख्ती से कुचला।
खुसरो को कैद किया गया और उनके समर्थन को दंडित किया गया, जिसमें प्रसिद्ध सूफी संत गुरु अर्जुन देव का भी tragical अंत शामिल था। इस घटना ने सिख-मुगल संबंधों में तनाव को बढ़ा दिया।
4. प्रशासन और न्याय
जहांगीर की शासन काल का एक अहम हिस्सा उनकी न्यायप्रियता थी। उन्होंने खुद को जंजीर-ए-अदालत का निर्माता घोषित किया। अपने दरबार के बाहर उन्होंने एक बड़ी गोल्डन चेन लगवाई थी, जिससे कोई भी आम नागरिक खींचकर अपनी शिकायत सुनवा सकता था। यह उस समय के लिए एक असाधारण और प्रगतिशील विचार था, जो दर्शाता है कि शासक जनता की बात सुनने के लिए खुला था।
जहांगीर ने अपने राज में कई न्यायिक और वित्तीय सुधार किए। उन्होंने भ्रष्ट अधिकारियों को दंडित किया, कर प्रणाली को सरल बनाया, और प्रशासनिक पदों पर योग्य व्यक्तियों को रखा। वे अपने पिता अकबर की नीतियों को अपनाते रहे, खासकर धार्मिक सहिष्णुता को। उन्होंने हिन्दुओं को भी प्रशासन में भाग लेने का अवसर दिया।
5. कला और साहित्य
जहांगीर खुद को एक विद्वान और कला प्रेमी मानते थे। उन्होंने चित्रकला को संरक्षण दिया और मुगल लघुचित्रकला को ऊंचाइयों तक पहुंचाया। उनके राज में चित्रण के तरीके में प्राकृतिक दृश्यों और जीवों की बारीकी का विकास हुआ। वे खुद भी चित्रकला में रुचि रखते थे और कई बार कला के कामों में सुधार करते थे।
जहांगीर के दरबार में बहुत सारे प्रसिद्ध चित्रकार काम कर रहे थे। इस समय के चित्रों में परसीय और भारतीय शैलियों का एक अच्छा मिश्रण देखने को मिलता है। उन्होंने वास्तुकला के क्षेत्र में भी योगदान दिया। उनके शासन में कई सुंदर उद्यान और मकबरे बने, जिसमें आगरा और लाहौर के उद्यान स्वतंत्रता से भरे हुए हैं। उनके शासन का सबसे प्रसिद्ध निर्माण उनकी पत्नी नूरजहां का इम्तियाज महल और जहांगीर का मकबरा है, जो आज भी कला का एक अद्भुत उदाहरण है।
6. साहित्यिक रुचियां
जहांगीर एक शिक्षित व्यक्ति थे और उनकी साहित्य में गहरी रुचि थी। उन्होंने अपनी आत्मकथा तुजुक-ए-जहांगीरी लिखी, जिसमें अपने शासन के पहले 17 वर्षों का वर्णन किया। यह किताब न सिर्फ राजनीतिक परिपेक्ष्य में महत्वपूर्ण है, बल्कि उनके व्यक्तिगत विचार और रुचियां भी इसे पढ़ने पर मिलती हैं।
इस किताब में उन्होंने अपनी गलतियों और सफलताओं का बहुत ईमानदारी से उल्लेख किया। उनके लेखन में स्पष्टता और तर्कशीलता नजर आती है। वे कविता, संगीत, और इतिहास में भी रुचि रखते थे। फारसी और तुर्की में उनकी अच्छी पकड़ थी और उन्होंने संस्कृत और हिंदी के विद्वानों को भी प्रोत्साहित किया।
7. नूरजहां का प्रभाव

जहांगीर के शासन की एक खास बात उनकी पत्नी नूरजहां का प्रभाव था। नूरजहां, जिनका असली नाम मेहर-उन-निसा था, एक सुंदर और समझदार महिला थीं। उन्होंने न केवल एक पत्नी के रूप में बल्कि एक सह-शासक के तौर पर भी शासन में भाग लिया। कहा जाता है कि कई बार जहांगीर ने उन्हें शासन के मामलों में निर्णय लेने की स्वतंत्रता दी थी।
नूरजहां ने खुद के नाम पर सिक्के जारी किए और कई शाही फरमानों पर उनके हस्ताक्षर होते थे। उन्होंने महिलाओं के कल्याण, सद्भावना और कला को भी बढ़ावा दिया। जहांगीर और नूरजहां का संबंध भारतीय इतिहास में एक खूबसूरत प्रेम कहानी के रूप में जाना जाता है।
8. विदेश नीति और सैन्य अभियान
जहांगीर के शासन के दौरान मुगलों ने अपने नियंत्रण को और मजबूत किया। उन्होंने दक्षिण भारत के कुछ राज्यों के खिलाफ अभियान चलाए। खासकर अहमदनगर के निज़ामशाही शासकों के खिलाफ। उनके सेनापति मलिक अंबर और उनके बेटे खुर्रम (जो बाद में शाहजहां बने) ने इस कार्य में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
जहांगीर ने मेवाड़ के राणा अमरसिंह से समझौता किया, जो अकबर के समय से ही विवाद में थे। यह समझौता मुगल-राजपूत संबंधों में स्थिरता का प्रतीक बन गया।
विदेशी मामलों में, जहांगीर के शासन में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रतिनिधि सर थॉमस रो ने 1615 में भारत में आकर दरबार में भाग लिया। जहांगीर ने उनसे अच्छे संबंध बनाए और व्यापारिक विशेषाधिकार दिए।
9. धर्म और धार्मिक दृष्टिकोण
जहांगीर ने अपने पिता अकबर की धार्मिक सहिष्णुता नीति को जारी रखा, लेकिन वे दीन-ए-इलाही जैसी नई धारणा के समर्थक नहीं थे। वे इस्लाम के सिद्धांतो का पालन करते थे, लेकिन हिन्दुओं और अन्य धर्मों के लोगों के प्रति उनकी सहिष्णुता थी।
हालांकि, कुछ मौके पर उन्होंने सिखों और जैनों के प्रति कठोरता भी दिखाई। गुरु अर्जुन देव के मामले ने इस बात को प्रमाणित किया। फिर भी, उनके दरबार में अलग-अलग धर्मों के लोग सम्मानित स्थान पर थे और वे धार्मिक विचारों को सुनने में रुचि रखते थे।
10. अंतिम समय और निधन

जहांगीर के स्वास्थ्य में अचानक गिरावट आई। शराब और अफीम के अधिक सेवन से उनकी सेहत खराब हो गई। वे अक्सर कश्मीर की वादियों में समय बिताते थे। 28 अक्टूबर 1627 को, जब वे कश्मीर से लाहौर लौट रहे थे, राजौरी में उनकी मृत्यु हो गई।
उनका शव लाहौर लाया गया, जहां उनके लिए मकबरे का निर्माण किया गया। ये मकबरा आज भी स्थापत्य और कला का एक अद्भुत उदाहरण है। उनके बाद उनके बेटे खुर्रम, जिन्हें शाहजहां के नाम से भी जाना जाता है, गद्दी पर बैठे।
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