यहां पर भारत छोड़ो आंदोलन पर एक सरल और विस्तार से लिखा गया लेख है, जिसमें हम इस महत्वपूर्ण घटना के सभी पहलुओं को समझेंगे:
1. परिचय: भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की एक बड़ी लहर

भारत छोड़ो आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का सबसे अहम हिस्सा था। यह आंदोलन अगस्त 1942 में शुरू हुआ, जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने साफ कर दिया कि अब ब्रिटिश शासन को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता।
महात्मा गांधी ने “करो या मरो” का नारा देकर लोगों से अपील की कि वे ब्रिटिश राज को खत्म करने की पूरी कोशिश करें। यह आंदोलन इतना प्रभावशाली था कि इसने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव को हिला कर रख दिया और भारत को स्वतंत्रता की ओर एक बड़ा कदम बढ़ाने का मौका दिया।
2. पृष्ठभूमि: द्वितीय विश्व युद्ध और देश का असंतोष
भारत छोड़ो आंदोलन की जड़ें 1939 में होने वाले द्वितीय विश्व युद्ध में हैं। जब ब्रिटेन ने बिना कोई सलाह-मशवरा किए ही भारत को युद्ध में शामिल कर लिया, तब भारतीय नेताओं में आक्रोश पैदा हुआ।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इस कदम का विरोध किया और कहा कि पहले भारत को आज़ादी दी जानी चाहिए। ब्रिटिश सरकार ने कुछ वादे किए, लेकिन वे बहुत ही अस्पष्ट थे। इसका नतीजा यह हुआ कि लोगों में स्वतंत्रता की इच्छा और भी गहरी हो गई और उनका धैर्य थकने लगा।
3. प्रस्ताव का पारित होना: बंबई में एक ऐतिहासिक बैठक
8 अगस्त 1942 को बंबई के ग्वालिया टैंक मैदान में कांग्रेस की कार्यसमिति ने एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव पारित किया जिसमें भारत की तत्काल स्वतंत्रता की मांग की गई।
महात्मा गांधी ने इस बैठक में “करो या मरो” का नारा दिया, जो पूरे देश में गूंज उठा। यह सिर्फ एक नारा नहीं था, बल्कि इसने आज़ादी की एक गंभीर लड़ाई का संकेत दिया। गांधीजी ने साफ कहा कि अब कोई शर्त नहीं, केवल स्वतंत्रता चाहिए, नहीं तो लोग अहिंसक तरीके से अंग्रेजों को देश छोड़ने को मजबूर कर देंगे।
4. नेताओं की गिरफ्तारी और आंदोलन का बढ़ता हुआ जोश

9 अगस्त 1942 की सुबह, गांधीजी, नेहरू, पटेल, मौलाना आज़ाद और अन्य शीर्ष नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। कांग्रेस को गैरकानूनी घोषित किया गया और मीडिया पर कठोर सेंसरशिप लगा दी गई।
लेकिन ब्रिटिश सरकार ये नहीं समझ पाई कि अब यह भारत छोड़ो आंदोलन सिर्फ नेताओं तक सीमित नहीं रहा था। यह आम जनता का आंदोलन बन चुका था। जैसे ही खबर फैली, देशभर में हड़तालें, जुलूस और प्रदर्शन होने लगे। सरकारी बिल्डिंगों पर हमले भी बढ़ गए।
5. आंदोलन का स्वरूप: शांतिपूर्ण आंदोलन से हिंसक प्रतिक्रियाएँ
गांधीजी ने भारत छोड़ो आंदोलन को शांतिपूर्ण रखने की कोशिश की, लेकिन कई जगहों पर ये हिंसक रूप ले लिया। रेलवे स्टेशनों को जलाया गया, टेलीग्राफ और टेलीफोन लाइनें काट दी गईं, पुलों को उड़ा दिया गया
और पुलिस थाने पर हमले हुए। खासकर बिहार, उत्तर प्रदेश, बंगाल और महाराष्ट्र में आंदोलन ने तेज़ी से बढ़त बनाई। सरकार ने इसे दबाने के लिए पुलिस और सेना का इस्तेमाल किया, लेकिन लोगों की जागरूकता को कुचला नहीं जा सका। यह आंदोलन भारतीय जनता की एक बड़ी क्रांति बन गया।
6. जन सहभागिता: महिलाएँ, युवा और किसान
भारत छोड़ो आंदोलन की एक खास बात यह थी कि इसमें हर वर्ग के लोग शामिल हुए। केवल कांग्रेस नेता या शहरी लोग ही नहीं, बल्कि किसान, कर्मचारी, छात्र, महिलाएं और व्यापारी भी इसमें सक्रिय भूमिका निभा रहे थे।
महिलाओं ने भी महत्वपूर्ण हिस्सेदारी निभाई। अरुणा आसफ़ अली ने आंदोलन का नेतृत्व किया और ग्वालिया टैंक मैदान में झंडा फहराया। उषा मेहता ने भूमिगत रेडियो चलाकर आंदोलन के संदेश फैलाए। छात्रों ने स्कूल-कॉलेज छोड़कर सत्याग्रह में भाग लिया। किसानों ने गांवों में आंदोलन को आगे बढ़ाया और सरकार के करों का बहिष्कार किया।
7. स्थानीय विद्रोह और स्वायत्त सरकारों की स्थापना
भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान कई जगहों से जनता ने प्रशासन को नकारते हुए अपने-अपने स्वायत्त सरकारें बनाईं। जैसे बिहार के बलिया जिले में चित्तू पांडे के नेतृत्व में एक समानांतर सरकार बनी। बंगाल में “तमलुक राष्ट्रीय सरकार” ने कानून और व्यवस्था संभाली।
महाराष्ट्र के सतारा में भी ऐसी सरकार की स्थापना हुई जिसे प्रतिनिधि सरकार कहा गया। ये स्थानीय सरकारें ये दर्शा रही थीं कि भारतीय लोग अब अंग्रेजों की सुनने को तैयार नहीं हैं और वे आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ रहे हैं।
8. अंग्रेजों की क्रूरता: दमन और अत्याचार की कहानी

ब्रिटिश सरकार ने आंदोलन को खत्म करने के लिए काफी हिंसा का सहारा लिया। हजारों लोग बिना किसी मुकदमे के जेलों में डाल दिए गए। आंदोलनकारियों को गोली मारी गई, गांव जलाए गए, और महिलाओं और बच्चों तक को नहीं बख्शा गया।
पुलिस और सेना ने मिलकर आंदोलन को दबाने के कई उपाय किए। फिर भी, लोग हार नहीं माने। गांधीजी को पुणे में नजरबंद किया गया, जहां उनकी पत्नी कस्तूरबा गांधी का 1944 में निधन हो गया।
9. अंतरराष्ट्रीय दृष्टि: विश्व युद्ध और भारत की आज़ादी
भारत छोड़ो आंदोलन ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी अपने असर छोड़े। अमेरिका, रूस और चीन जैसे देशों ने ब्रिटेन पर दबाव बनाया कि वो भारत को स्वतंत्रता दे।
अमेरिका के राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी. रूज़वेल्ट ने ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल से कहा कि भारत में लोकतंत्र और स्वतंत्रता की स्थापना की जाए। भले ही चर्चिल इस आंदोलन से असहमत थे, लेकिन अंतरराष्ट्रीय दबाव और भारत के अंदर हो रहे आंदोलनों ने उन्हें सोचने पर मजबूर कर दिया।
10. आंदोलन की असफलता या सफलता: एक समग्र विश्लेषण
भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान भले ही तत्काल प्रभाव से स्वतंत्रता नहीं मिली और इसे दमन के जरिए कुचला गया, लेकिन इसे पूरी तरह से असफल नहीं कहा जा सकता।
इसने ब्रिटिश सरकार की राजनीतिक वैधता को चुनौती दी और उन्हें यह अहसास कराया कि भारत को अब और नहीं रोका जा सकता। इस आंदोलन ने भारतीय नागरिकों को आत्मनिर्भरता, देशभक्ति और एकता का महत्व बताया। यही आंदोलन 1946 में कैबिनेट मिशन का आधार बना और 1947 में भारत को आज़ादी मिल गई।
11. निष्कर्ष: भारत छोड़ो आंदोलन का ऐतिहासिक महत्व
भारत छोड़ो आंदोलन भारतीय इतिहास का वो अहम् मोड़ है, जिसने स्वतंत्रता संग्राम को अंतिम दिशा दी। यह आदोलन महात्मा गांधी के नेतृत्व में देशवासियों की आवाज बन गया। इसमें हर वर्ग ने हिस्सा लिया और यह साबित कर दिया कि भारत अब गुलाम नहीं रह सकता।
यह आंदोलन केवल आज़ादी की मांग नहीं, बल्कि भारत की आत्मा का जागरण भी था। इसने पूरी दुनिया को दिखा दिया कि अगर एक राष्ट्र अपनी स्वतंत्रता के लिए संकल्पित है, तो उसे कोई भी ताकत बाधित नहीं कर सकती।
इस तरह, भारत छोड़ो आंदोलन एक ऐसा कार्यक्रम था जिसने ना केवल हमारे देश की आज़ादी की दिशा में बड़ा कदम बढ़ाया, बल्कि सभी भारतीयों को एकजुट किया।
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